China Politics in Tibet: तिब्बत में बौद्ध धर्म को लेकर चीन की नीति अब सिर्फ धर्म या संस्कृति का विषय नहीं रही, बल्कि यह उसके राजनीतिक एजेंडे का अहम हिस्सा बन गई है। श्रीलंका के सीलोन वायर न्यूज़ में प्रकाशित एक विस्तृत रिपोर्ट के मुताबिक, बीजिंग की पूरी रणनीति तीन स्तंभों पर टिकी है धार्मिक संस्थाओं पर पकड़, राज्य-केंद्रित नैरेटिव का निर्माण, और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव जमाना।
इन तीनों का उद्देश्य एक ही है तिब्बती बौद्ध धर्म को चीन के राजनीतिक ढांचे के अधीन लाना और उसे नियंत्रित रखना।
धर्म पर पार्टी का शिकंजा- China Politics in Tibet
रिपोर्ट के अनुसार, 1990 के दशक के आखिर में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) ने तिब्बती बौद्ध धर्म की निगरानी को संस्थागत रूप से लागू करना शुरू किया।
वर्तमान में तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में करीब 1,700 पंजीकृत मठ और लगभग 46,000 भिक्षु व भिक्षुणियाँ हैं और इन सभी की गतिविधियों पर सरकार की नजर रहती है।
हर मठ की देखरेख के लिए एक “सरकारी प्रबंधन समिति” होती है, और किसी भी वरिष्ठ भिक्षु या मठ प्रमुख की नियुक्ति पार्टी की मंज़ूरी के बिना नहीं की जा सकती।
2008 के बाद से ल्हासा और आसपास के मठों में “देशभक्ति शिक्षा सत्र” लगातार बढ़ाए गए हैं। इनमें भिक्षुओं को दलाई लामा की आलोचना करने और चीन के प्रति वफादारी की शपथ लेने के लिए मजबूर किया जाता है।
दलाई लामा के पुनर्जन्म पर भी नियंत्रण
चीन के हस्तक्षेप का सबसे स्पष्ट उदाहरण दलाई लामा के पुनर्जन्म पर ‘अधिकार’ जताना है।
जहां यह प्रक्रिया सदियों से तिब्बती धार्मिक परंपरा का हिस्सा रही है, वहीं अब बीजिंग इसे सरकारी स्वीकृति से जोड़ना चाहता है।
रिपोर्ट कहती है — “बीजिंग का यह कदम इस सोच को दर्शाता है कि अगर वह उत्तराधिकार को नियंत्रित करेगा, तो तिब्बती पहचान के प्रतीक दलाई लामा को बेअसर किया जा सकता है।”
‘शांतिपूर्ण मुक्ति’ की कहानी और सरकारी प्रचार
चीनी सरकार 1951 में तिब्बत के अपने साथ विलय को “शांतिपूर्ण मुक्ति” बताती है।
सरकारी मीडिया, स्कूल की किताबें और संग्रहालयों में यही कथानक दोहराया जाता है कि चीन ने तिब्बत को “सामंती धर्मतंत्र” से मुक्त कराया।
रिपोर्ट में बताया गया है कि बीजिंग मठों के जीर्णोद्धार और विकास में किए जा रहे खर्च को भी अपनी “उदारता” के रूप में प्रस्तुत करता है।
यहां तक कि कई सरकारी अभियानों में भिक्षुओं के नाचते हुए दृश्य दिखाए जाते हैं, जहां वे पार्टी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते नजर आते हैं ताकि यह संदेश फैले कि तिब्बती अब खुशहाल और चीन के आभारी हैं।
एशिया में फैलाया जा रहा चीन का ‘राज्य संस्करण’ बौद्ध धर्म
रिपोर्ट में कहा गया है कि बीजिंग अब सिर्फ तिब्बत तक सीमित नहीं रहना चाहता।
वह बौद्ध धर्म के अपने “राज्य समर्थित संस्करण” को श्रीलंका, थाईलैंड और नेपाल जैसे देशों तक फैलाने की कोशिश कर रहा है।
चीन इन देशों में अंतरराष्ट्रीय बौद्ध सम्मेलनों को वित्तीय मदद देता है और उन विश्वविद्यालयों को सहयोग करता है जो उसके विचारों के अनुरूप शोध कार्य करते हैं।
इसका बड़ा उद्देश्य है चीन को बौद्ध विचारधारा का नया वैश्विक केंद्र दिखाना, और दलाई लामा जैसे नेताओं के अंतरराष्ट्रीय प्रभाव को कमजोर करना।
राजनीति बनाम आस्था का संघर्ष
रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि तिब्बत का संघर्ष अब धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक वैधता का सवाल बन गया है।
CCP का असली उद्देश्य है धर्म को “चीनी विशेषताओं” के साथ ढालना, ताकि किसी भी धार्मिक संस्था की निष्ठा पार्टी से ऊपर न जा सके।
रिपोर्ट के शब्दों में, “जितना अधिक CCP तिब्बती बौद्ध धर्म को नियंत्रित करने की कोशिश करती है, उतना ही वह उसके आत्मिक लचीलेपन को उजागर करती है।”
यह संघर्ष केवल तिब्बत तक सीमित नहीं, बल्कि यह सवाल है कि चीन के सीमावर्ती इलाकों में नैतिक अधिकार किसके पास होगा, सत्ता का या आध्यात्मिकता का।
