Super 301: भारत और अमेरिका के बीच व्यापार को लेकर चल रही तनातनी एक बार फिर उस दौर की याद दिला रही है जब 1989 में भारत को ‘सुपर 301’ लिस्ट में डालकर अमेरिकी प्रशासन ने दवाब बनाने की कोशिश की थी। तब भारत में राजीव गांधी की सरकार थी और दिनेश सिंह जैसे मंत्री ने अमेरिका पर दोहरे मानदंड अपनाने का आरोप लगाया था। आज, करीब 35 साल बाद, एक बार फिर अमेरिका की वही नीति देखने को मिल रही है फर्क बस इतना है कि तब जापान अमेरिका के निशाने पर था, और अब भारत।
चीन को राहत, भारत पर शिकंजा- Super 301
ट्रंप प्रशासन ने चीन के साथ टैरिफ को लेकर नरमी बरतते हुए उसे 90 दिनों की अतिरिक्त मोहलत दी है। वहीं भारत पर रूस से तेल खरीद को लेकर आर्थिक दबाव बढ़ा दिया गया है। 27 अगस्त से अमेरिका को निर्यात किए जाने वाले भारतीय उत्पादों पर 50 फीसदी टैरिफ लगाए जाने की आशंका जताई जा रही है।
विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत के खिलाफ इस तरह की कार्रवाई न सिर्फ व्यापार वार्ता को प्रभावित कर सकती है बल्कि अमेरिका की उस रणनीति को भी कमजोर करती है जिसमें वह भारत को चीन और रूस के प्रभाव से दूर रखने की कोशिश करता रहा है।
अमेरिका की नीति में साफ दिख रहा है भेदभाव
अमेरिका चीन के साथ अपने द्विपक्षीय व्यापार में लचीलापन दिखा रहा है, वहीं भारत पर सख्ती बरत रहा है। पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका का एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल जो 25 अगस्त को भारत दौरे पर आने वाला था, अब संभवतः इस यात्रा को टाल सकता है। अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने चीन को रियायत देने की दलील देते हुए कहा कि वहां सेकेंडरी टैरिफ लगाने से ग्लोबल ऊर्जा कीमतें प्रभावित हो सकती हैं। लेकिन यही तर्क भारत के लिए नहीं अपनाया जा रहा।
विशेषज्ञों की राय: भारत को दबाना चाहता है अमेरिका?
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन का कहना है कि ट्रंप की यह नीति भारत को रूस और चीन के करीब ले जाने का खतरा पैदा कर रही है। वहीं एशिया मामलों के विशेषज्ञ इवान फेगेनबाम का कहना है कि अमेरिका धीरे-धीरे चीन विरोधी गठबंधन से भारत विरोधी नीति की ओर बढ़ रहा है, जो अमेरिकी कूटनीति के लिए एक असमंजस भरा कदम है।
इतिहास दोहरा रहा है खुद को?
1989 में जब अमेरिका ने ‘सुपर 301’ की नीति के तहत भारत को टारगेट किया था, तब भी भारत पर ये आरोप लगाए गए थे कि उसकी व्यापारिक नीतियां अमेरिकी कंपनियों के लिए अनुचित हैं। उस समय भारत के साथ जापान और ब्राजील भी इस सूची में शामिल थे। लेकिन भारत का व्यापार सरप्लस जापान के मुकाबले बेहद कम था। बावजूद इसके उसे समान स्तर पर टारगेट किया गया।
राजीव गांधी सरकार के बाद वीपी सिंह के नेतृत्व में आई सरकार ने भी अमेरिका के इस रवैये का कड़ा विरोध किया था। वीपी सिंह ने साफ कहा था कि भारत किसी भी दबाव में अपनी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं से समझौता नहीं करेगा।
‘सुपर 301’ क्या था?
सुपर 301, अमेरिका के ट्रेड एक्ट सेक्शन 301 का एक संशोधित रूप था जिसे 1988 में लाया गया था। इसका मकसद उन देशों की पहचान करना था जिनकी व्यापारिक नीतियां अमेरिकी कंपनियों के लिए अवरोध पैदा कर रही थीं। इस लिस्ट में आने वाले देशों पर अमेरिका टैरिफ और अन्य दंडात्मक कार्रवाई कर सकता था।
भारत को इस सूची में डालकर अमेरिका ने बीमा, फिल्म, टेक्नोलॉजी और इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी कानूनों में बदलाव की मांग की थी। उस समय भारत की आर्थिक स्थिति कमजोर थी और अमेरिका एक बड़ा एक्सपोर्ट मार्केट था, इसलिए किसी भी कार्रवाई का असर गहरा हो सकता था।
1991 का मोड़: उदारीकरण और सुधार
अमेरिका की चेतावनी के बाद भारत ने प्रत्यक्ष रूप से कोई जवाबी कार्रवाई नहीं की, लेकिन 1991 में पीवी नरसिम्हा राव और तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में भारत ने आर्थिक सुधारों की शुरुआत की, जिसने अमेरिका की कई चिंताओं को स्वतः हल कर दिया। विदेशी निवेश को लेकर नीतियों में बदलाव हुए, और भारत ने धीरे-धीरे खुद को वैश्विक बाजार के लिए खोला।
आज की स्थिति में खतरे की घंटी
2025 में जब ट्रंप फिर से सत्ता में हैं, भारत के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की आशंका जताई जा रही है। चीन पर टैरिफ में ढील और भारत पर दबाव एक बार फिर इस सवाल को जन्म दे रहा है कि क्या अमेरिका भारत को जानबूझकर निशाना बना रहा है?
ट्रंप के लिए टैरिफ एक राजनीतिक हथियार रहा है, और अब वह इसका उपयोग भारत के खिलाफ कर रहे हैं। ऐसे में भारत को भी अपने रणनीतिक और आर्थिक विकल्पों पर गंभीरता से विचार करना होगा।
क्या अब भी अमेरिका भरोसे के लायक है?
पिछले कुछ सालों में भारत और अमेरिका के बीच रणनीतिक साझेदारी मजबूत हुई है। लेकिन मौजूदा व्यापार नीति और अमेरिका का व्यवहार इस रिश्ते पर सवाल उठा रहा है। भारत के लिए यह समय आत्ममंथन का है कि वह किन क्षेत्रों में अमेरिका के साथ सहयोग जारी रखे और किन मामलों में अपनी स्वतंत्र नीति अपनाए।