Akhilesh Yadav On 120 Bahadur: भारतीय समाज में जाति हमेशा से गहरी जड़ें जमाए बैठी है सामाजिक जीवन में हो या राजनीति के केंद्र में. लेकिन आज हालत यह है कि राष्ट्रीय मुद्दों तक को जाति के चश्मे से देखा जाने लगा है. राजनीति के बदलते स्वरूप ने ऐसी परिस्थिति खड़ी कर दी है कि नेता किसी भी ऐतिहासिक घटना को जाति के दायरे में समेटकर अपने वोट बैंक को साधने की कोशिश करते नजर आते हैं. इसी बहस को एक बार फिर हवा मिली है समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के ताज़ा बयान से.
फिल्म ‘120 बहादुर’ की स्क्रीनिंग और विवाद की चिंगारी (Akhilesh Yadav On 120 Bahadur)
26 नवंबर 2025 को लखनऊ में फरहान अख्तर की नई फिल्म ‘120 बहादुर’ की स्पेशल स्क्रीनिंग रखी गई थी. फिल्म 1962 के चीन युद्ध के दौरान रेजांगला दर्रे पर लड़ी गई ऐतिहासिक लड़ाई पर आधारित है. स्क्रीनिंग में पहुंचे अखिलेश यादव ने इस युद्ध में शहीद हुए सैनिकों जिनमें बड़ी संख्या अहीर (यादव) समुदाय के जवानों की थी की वीरता की खुलकर सराहना की.
अखिलेश ने साफ शब्दों में कहा कि “अहीर सैनिकों ने रेजांगला में अद्भुत साहस दिखाया था और यह हमारी सेना का गौरवपूर्ण अध्याय है, जिसे जानना जरूरी है।”
उनका यह बयान महज एक तारीफ नहीं था, बल्कि एक तरह से यादव समुदाय की ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित करने का संदेश भी था. यहीं से विवाद की शुरुआत होती है.
रेजांगला युद्ध: 120 सैनिक बनाम 3000 दुश्मन
18 नवंबर 1962 को लद्दाख के रेजांगला दर्रे पर 13 कुमाऊं रेजिमेंट के सिर्फ 120 भारतीय सैनिकों ने चीन की करीब 3000 सैनिकों की सेना से मुकाबला किया था. इस लड़ाई में 114 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे. ज्यादातर जवान हरियाणा के रेवाड़ी, महेंद्रगढ़ और गुड़गांव क्षेत्रों से थे. इनमें अधिकतर अहीर (यादव) समुदाय से संबंधित थे. इस युद्ध के लिए मेजर शैतान सिंह को परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया था.
रेजांगला आज भी भारतीय सैन्य इतिहास का एक ऐसा पन्ना है, जिसे दुनिया सबसे बड़ी ‘लास्ट मैन स्टैंडिंग’ लड़ाइयों में गिनती है. लेकिन सवाल यह है कि क्या इसे जाति की दृष्टि से देखना उचित है?
फिल्म पर आरोप: क्या जातिगत पहचान को नजरअंदाज किया गया?
फिल्म ‘120 बहादुर’ रिलीज से पहले ही विवादों में घिर गई. अहीर समुदाय के कई संगठनों ने आरोप लगाया कि फिल्म में यादव सैनिकों के योगदान को सही रूप में नहीं दिखाया गया और एक राजपूत अधिकारी के किरदार को प्राथमिकता देकर ‘इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा’ गया है.
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने भी चेतावनी दी कि “इतिहास के साथ खिलवाड़ स्वीकार नहीं होगा।” अखिलेश के बयान आए तो ऐसा लगा जैसे विवाद को और हवा मिल गई हो. सवाल यह भी उठने लगे कि क्या अखिलेश नेता के रूप में बोल रहे थे या यादव समुदाय के प्रतिनिधि के तौर पर?
1. क्या वीरों की कोई जाति होती है?
इस बहस का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यही है. क्या किसी राष्ट्रीय नायक को उसकी जाति से जोड़ना ठीक है? रेजांगला के जवान भारतीय सेना के सैनिक थे, जिन्होंने देश के लिए जान दी, न कि किसी जाति के लिए. युद्ध के मैदान में जाति नहीं, केवल देशभक्ति मायने रखती है. अतीत के नायकों भगत सिंह, रानी लक्ष्मीबाई या सुभाष चंद्र बोस को भी किसी जाति की सीमाओं में बांधना उनके योगदान को छोटा करना होगा. लेकिन यह भी सच है कि कई बार समुदाय यह महसूस करते हैं कि इतिहास में उनका योगदान दबा दिया गया, इसलिए वे अपनी पहचान को सामने लाने की कोशिश करते हैं.
लेकिन क्या यह तरीका सही है? क्या राष्ट्रीय नायकों को समुदाय की संपत्ति बताया जा सकता है? यह विचार खतरनाक भी हो सकता है, क्योंकि इससे समाज में विभाजन की दरारें गहरी होती हैं.
2. क्या आज जाति–आधारित रेजिमेंट की जरूरत है?
अखिलेश यादव कई सालों से अहीर रेजिमेंट की मांग करते रहे हैं. उनका तर्क है कि रेजांगला के शहीदों की याद में उनके नाम पर एक अलग रेजिमेंट बननी चाहिए. कुछ रिटायर्ड सैन्य अधिकारी इसका समर्थन करते हैं, लेकिन दूसरी ओर कई विशेषज्ञ मानते हैं कि सेना की सबसे बड़ी ताकत उसकी “एकता” है.
सवाल ये भी उठता है कि अगर कल हर जाति या समुदाय अपनी रेजिमेंट की मांग करने लगे, तो क्या सेना का ढांचा राजनीतिक और जातिगत दबावों से प्रभावित नहीं होगा? सोशल मीडिया पर भी कई लोगों ने कहा कि अखिलेश “सेना को जाति का मैदान” बनाना चाहते हैं.
3. क्या अखिलेश का बयान राजनीतिक फायदे से जुड़ा है?
यह छिपा नहीं है कि उत्तर प्रदेश और हरियाणा में यादव समुदाय समाजवादी पार्टी का एक बड़ा वोट बैंक है. अखिलेश यादव ने 2019 के चुनाव घोषणापत्र से ही जाति जनगणना, जाति-आधारित रेजिमेंट और पिछड़े वर्गों के अधिकारों को मुद्दा बनाया है. ऐसे में रेजांगला के अहीर सैनिकों की वीरता पर जोर देना राजनीतिक रूप से उनके लिए फायदेमंद हो सकता है. फिल्म की स्क्रीनिंग में दिया गया बयान भी कहीं न कहीं उन्हीं प्रयासों का हिस्सा माना जा रहा है.
यादव समुदाय में यह संदेश जाता है कि अखिलेश उनकी विरासत और गौरव को सम्मान दे रहे हैं. लेकिन दूसरी ओर यह भी चर्चा है कि सेना जैसे संस्थानों को राजनीतिक बहस में घसीटना ठीक नहीं है.
4. क्या वंचित समुदायों को पहचान दिलाने का यही तरीका है?
यह तर्क भी दिया जा रहा है कि सदियों से दबे-कुचले समुदाय अपनी पहचान और गौरव की लड़ाई लड़ रहे हैं. उन्हें भी अधिकार मिलना चाहिए. अगर रेजांगला के अहीर सैनिकों की वीरता को सामने लाकर किसी समुदाय को आत्मसम्मान मिलता है तो उसमें बुराई क्या है? लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है जातिगत राजनीति इतिहास को विकृत करती है. चुनाव आयोग भी कहता है कि चुनावी राजनीति में जाति और धर्म का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए. अगर हर समुदाय अपने-अपने नायक बनाकर अलग पहचान की मांग करेगा, तो राष्ट्रीय एकता का क्या होगा?
