Caste Census Side effects: भारत में जातिवार जनगणना की घोषणा एक ऐतिहासिक कदम है, जो आजादी के बाद पहली बार हो रही है। इस जनगणना के आंकड़े ओबीसी (आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों) की सूची में बड़े बदलाव ला सकते हैं। इसके परिणामस्वरूप, कई जातियां ओबीसी की सूची से बाहर हो सकती हैं, जबकि कई अन्य जातियां इस सूची में शामिल हो सकती हैं। यह कदम जाति आधारित राजनीति को खत्म करने के उद्देश्य से उठाया गया है, ताकि सामाजिक न्याय की दिशा में सही फैसले लिए जा सकें।
जातिवार जनगणना का उद्देश्य- Caste Census Side effects
भारत सरकार का लक्ष्य है कि जातिवार जनगणना को एक स्थायी प्रक्रिया बना दिया जाए, ताकि हर 10 साल में जातियों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक आंकड़े आसानी से जुटाए जा सकें। वर्तमान में ओबीसी की सूची में कई जातियों को शामिल किया गया है, लेकिन इसका आधार 1931 के आंकड़े हैं। यह आंकड़े अब पुराने और अप्रचलित हो चुके हैं। जातिवार जनगणना के जरिए सरकार के पास नई, ठोस जानकारी होगी, जिससे ओबीसी सूची को सुधारने में मदद मिल सकेगी।
सूत्रों के मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बीच इस विषय पर चर्चा हुई थी। बैठक में गृह मंत्री अमित शाह भी मौजूद थे। इस बैठक के बाद सरकार ने जातिवार जनगणना की प्रक्रिया को मंजूरी दी और इसे आगामी जनगणना का हिस्सा बनाने का निर्णय लिया।
जातिवार गणना की स्थायिता
गृह मंत्रालय के उच्च अधिकारियों का कहना है कि यह निर्णय लंबे समय से चल रही सोच और विचार-विमर्श का परिणाम है। सरकार ने इसे स्थायी स्वरूप देने का विचार किया है, ताकि आने वाले समय में हर 10 साल पर होने वाली जनगणना के साथ-साथ जातिवार गणना भी की जाए। इससे देश की सभी जातियों के सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक आंकड़े एक जगह पर जमा होंगे और इन्हें सही तरीके से विश्लेषित किया जा सकेगा।
इससे यह भी होगा कि जिन जातियों की स्थिति अन्य जातियों से बेहतर होगी, उन्हें आसानी से पहचाना जा सकेगा। इसके अलावा, यह ओबीसी सूची में बदलाव के लिए ठोस आधार भी बनेगा। कई जातियों को ओबीसी सूची से बाहर किया जा सकता है, और कई जातियों को इसमें शामिल किया जा सकता है।
ओबीसी सूची में बदलाव का ठोस आधार
जातिवार गणना के आंकड़ों के आधार पर ओबीसी सूची में बदलाव हो सकता है। वर्तमान में ओबीसी सूची का आधार 1931 के आंकड़े हैं, जब जातियों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का कोई वास्तविक आंकड़ा उपलब्ध नहीं था। 1931 की जनगणना के आधार पर ही भारत में 52 प्रतिशत आबादी को पिछड़ा हुआ माना गया था और उनके लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। लेकिन यह आंकड़े पुराने और असंभावित हो चुके हैं।
समझा जाता है कि जातिवार गणना के आंकड़ों के बाद ओबीसी सूची को सुधारने का रास्ता खुल सकता है। इसके परिणामस्वरूप, न्यायालय का सहारा लिया जा सकता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ओबीसी की सूची में सही जातियों को शामिल किया गया है और गलत जातियों को बाहर किया गया है।
1931 के आंकड़े और 2011 की कोशिश
वर्तमान में ओबीसी जातियों की जानकारी का एकमात्र आधार 1931 की जनगणना है, जो अब पुराना हो चुका है। इसके बावजूद, 1991 में ओबीसी आरक्षण की व्यवस्था पर सवाल उठाए गए थे, लेकिन तब भी अद्यतन आंकड़े जुटाने का प्रयास नहीं किया गया। 2011 में संप्रग सरकार ने सामाजिक, आर्थिक और जातीय जनगणना करने की कोशिश की थी, लेकिन उस प्रक्रिया में कई गड़बड़ियां सामने आईं, जिसके कारण इसे सार्वजनिक नहीं किया गया।
इसके बाद नरेंद्र मोदी और मनमोहन सिंह की सरकारों ने इस आंकड़े को जारी करने पर रोक लगाई। 2011 की सामाजिक-आर्थिक जातीय जनगणना को भी जनगणना से अलग रखा गया था और इसे एक सर्वेक्षण के रूप में किया गया था, लेकिन इसमें बड़े पैमाने पर गड़बड़ियां सामने आईं, जिससे सरकार को इसे जारी न करने का फैसला करना पड़ा।