Justice Verma Case: देश की सबसे बड़ी अदालत में बुधवार को एक अलग ही तस्वीर देखने को मिली। आमतौर पर जहां अदालतें दूसरों के आचरण की जांच करती हैं, वहीं इस बार खुद एक न्यायाधीश को कटघरे में खड़ा किया गया। इलाहाबाद हाईकोर्ट में पदस्थ न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा से सुप्रीम कोर्ट ने तीखे और बेहद गंभीर सवाल पूछे, जो न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर अब एक बड़ी बहस छेड़ रहे हैं। मामला सीधे तौर पर नकदी बरामदगी और आगजनी से जुड़ा है, लेकिन इसके केंद्र में है एक बड़ा सवाल — क्या न्याय के मंदिर में बैठे लोगों पर भी वही नियम लागू होते हैं जो आम जनता पर होते हैं?
दरअसल, जस्टिस वर्मा ने एक याचिका दायर कर आंतरिक जांच समिति की उस रिपोर्ट को रद्द करने की मांग की है जिसमें उन्हें “कदाचार का दोषी” बताया गया है। यह वही रिपोर्ट है जो उनके सरकारी आवास में संदिग्ध परिस्थितियों में लगी आग और वहां अधजली हालत में बरामद नकदी के मामले की जांच के बाद तैयार की गई थी। समिति की रिपोर्ट में साफ कहा गया था कि जस्टिस वर्मा और उनके परिवार का उस कमरे पर गुप्त या सक्रिय नियंत्रण था, जहां से रकम मिली। पैनल ने उन्हें हटाने लायक गंभीर दोषी करार दिया।
सुप्रीम कोर्ट का सख्त रुख- Justice Verma Case
बुधवार को जब सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई, तो बेंच ने यशवंत वर्मा से सीधा सवाल किया कि जब वे जांच समिति की कार्यवाही में शामिल हुए थे, तो फिर अब उसे चुनौती क्यों दे रहे हैं? कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर उन्हें समिति की प्रक्रिया पर ऐतराज था तो उन्हें उसी वक्त कोर्ट आना चाहिए था, न कि तब जब रिपोर्ट उनके खिलाफ आई।
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति एजी मसीह की पीठ ने कहा, “अगर भारत के मुख्य न्यायाधीश के पास यह मानने लायक तथ्य हों कि किसी जज ने गलत किया है, तो वे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को सूचित कर सकते हैं। आगे की कार्रवाई भले ही राजनीतिक हो, लेकिन न्यायपालिका को समाज के सामने यह दिखाना ही होगा कि नियमों का पालन किया गया है।”
कपिल सिब्बल की दलील
न्यायमूर्ति वर्मा की ओर से वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने दलील दी कि पूरी जांच प्रक्रिया असंवैधानिक थी और इससे न्यायिक स्वतंत्रता को नुकसान पहुंचता है। उन्होंने कहा कि टेप पहले ही लीक हो चुके थे, जिससे जस्टिस वर्मा की प्रतिष्ठा को पहले ही ठेस पहुंच चुकी थी, इसलिए उन्होंने शुरू में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
नेदुम्परा पर भी फटकार
सुनवाई के दौरान कोर्ट ने अधिवक्ता मैथ्यूज जे. नेदुम्परा की भी खिंचाई की, जिन्होंने जस्टिस वर्मा के खिलाफ FIR दर्ज करने की मांग की थी। कोर्ट ने पूछा कि क्या उन्होंने पुलिस को कोई औपचारिक शिकायत की थी? यानी बिना किसी आधार के याचिका दाखिल करना कोर्ट को पसंद नहीं आया।
फैसला सुरक्षित, लेकिन बहस जारी
सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस वर्मा की याचिका और अधिवक्ता नेदुम्परा की FIR वाली याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। लेकिन इस पूरे मामले ने यह जरूर दिखा दिया कि अब न्यायपालिका के भीतर भी सवाल उठाने और पारदर्शिता की मांग को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
जांच रिपोर्ट में क्या कहा गया था?
तीन सदस्यीय जांच समिति — जिसकी अध्यक्षता पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस शील नागू कर रहे थे, ने 10 दिन की गहन जांच में 55 गवाहों से पूछताछ की थी। समिति ने 14 मार्च की रात जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास का निरीक्षण भी किया, जहां नकदी बरामद हुई थी। रिपोर्ट के मुताबिक, मामला इतना गंभीर था कि तत्कालीन CJI संजीव खन्ना ने 8 मई को राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग चलाने की सिफारिश की थी।
अब आगे क्या?
जस्टिस वर्मा की याचिका में यह तर्क दिया गया है कि जांच का पूरा तरीका पहले से तय ‘कहानी’ पर आधारित था, और उन्हें अपना पक्ष सही ढंग से रखने का मौका नहीं दिया गया। अब मामला सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिक गया है, जो तय करेगा कि क्या जांच प्रक्रिया उचित थी या वाकई संविधान के खिलाफ गई।