Poverty in India: भारत में गरीबी के मुद्दे पर बहुत कुछ कहा और लिखा गया है। हाल के वर्षों में सरकारी आंकड़े और वैश्विक संस्थाओं की रिपोर्टें गरीबी में कमी का संकेत देती हैं। अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में गिरावट आई है, और अधिक लोगों के पास भोजन, नौकरी, बिजली और आवास जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हैं। इन आंकड़ों को देखकर यह लगता है कि भारत में गरीबी कम हो रही है, लेकिन क्या यह आंकड़े भारत की असली गरीबी की तस्वीर को सही रूप से पेश कर रहे हैं?
गरीबी रेखा की परिभाषा- Poverty in India
विश्व बैंक का नवीनतम वैश्विक गरीबी अद्यतन 2025 में जारी किया गया, जिसमें दावा किया गया कि भारत में अत्यधिक गरीबी में तीव्र गिरावट आई है। रिपोर्ट के अनुसार, 2011 में प्रतिदिन 3 डॉलर से कम पर जीवन यापन करने वालों की संख्या 27% थी, जो 2022 में घटकर मात्र 5.3% रह गई। अगर पुराने आंकड़े के हिसाब से देखें तो यह संख्या 2.3% हो जाती है, यानी लगभग 269 मिलियन लोग एक दशक में गरीबी से बाहर आए हैं। यह एक सतही बदलाव का प्रतीत हो सकता है, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या 3 डॉलर से अधिक की कमाई वास्तव में एक बेहतर जीवन यापन का संकेत है?
देश की 83 प्रतिशत जनसंख्या की दैनिक आय 171 रुपये से कम है। क्या इनके कल्याण के लिए तत्काल वर्णव्यवस्था जातिधर्म को लागू नहीं करना चाहिए? इन अस्सी प्रतिशत व्यक्तियों से पूछ लीजिए, वे जन्म से अपने पक्के काम के पक्षधर होंगे। हम कहते हैं तो ऐसे सभी व्यक्ति धरातल पर समर्थन करते हैं। https://t.co/iabuTkSo8S
— Ayush Sharma (@ayusharma_bh) July 7, 2025
गरीबी रेखा का सही माप
इस सवाल का उत्तर समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि गरीबी रेखा की गणना कैसे की जाती है। विश्व बैंक बाजार विनिमय दरों का उपयोग नहीं करता, जो मुद्रास्फीति और मुद्रा उतार-चढ़ाव के साथ बदलती रहती हैं। इसके बजाय, पीपीपी (क्रय शक्ति समता) दरों का उपयोग किया जाता है, जो दर्शाती है कि प्रत्येक देश में एक डॉलर से कितना खरीदा जा सकता है। उदाहरण के लिए, भारत में 2025 के लिए पीपीपी विनिमय दर लगभग 20.66 रुपये प्रति अंतर्राष्ट्रीय डॉलर होगी। इसका मतलब है कि प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 3 डॉलर का खर्च 62 रुपये के बराबर होगा।
क्या 62 रुपये प्रतिदिन वास्तव में पर्याप्त हैं? यह सवाल अहम है, क्योंकि भारत में 62 रुपये प्रति दिन पर जीवन यापन करने की कल्पना करना भी मुश्किल है। ग्रेट लेक्स इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट की अर्थशास्त्र की प्रोफेसर डॉ. विद्या महाम्बरे ने कहा कि 62 रुपये प्रतिदिन की सीमा बुनियादी जीवन-यापन के लिए अपर्याप्त है। उन्होंने यह भी बताया कि वर्तमान में केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन 178 रुपये प्रतिदिन है, जो पीपीपी-आधारित गरीबी रेखा से कहीं अधिक है।
गरीबी रेखा से गरिमा रेखा तक
अगर हम वास्तविक गरीबी रेखा पर विचार करें तो यह आंकड़ा और भी चौंकाने वाला हो सकता है। गुड़गांव के सहायक प्रोफेसर डॉ. स्वप्निल साहू का मानना है कि गरीबी रेखा को सिर्फ आय के आधार पर नहीं परिभाषित किया जा सकता। उन्होंने कहा कि गरीबी का सही माप 250 से 300 रुपये प्रतिदिन के आसपास होना चाहिए, जो एक सम्मानजनक जीवन की शुरुआत करता है। इसमें भोजन, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, कुछ बचत और सुरक्षा की भावना शामिल होती है, न कि केवल जीवित रहना।
गरीबी के जमीनी असर पर एक नजर
हालांकि सरकारी योजनाओं और विभिन्न नीतियों ने गरीबी को कम करने में कुछ हद तक मदद की है, लेकिन यह केवल सतह तक की राहत है। खाद्य सब्सिडी, ग्रामीण सड़कें, नकद हस्तांतरण और बिजली की बेहतर पहुंच जैसी योजनाओं ने कुछ हद तक लोगों के जीवन स्तर को सुधारने में मदद की है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे पूरी तरह से गरीबी से बाहर निकल आए हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि गरीबी की परिभाषा को सिर्फ आय तक सीमित नहीं रखना चाहिए, क्योंकि गरीबी का असली असर जमीनी स्तर पर होता है, जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, और बुनियादी सेवाओं की पहुंच।
भारत की असमानता की समस्या
भारत में गरीबी का एक और पहलू असमानता है, जो केवल आंकड़ों से समझ पाना मुश्किल है। गिनी इंडेक्स के अनुसार, आय असमानता में थोड़ा सुधार हुआ है, लेकिन यह अभी भी बहुत अधिक है। शीर्ष 1% लोग देश की 40.1% संपत्ति के मालिक हैं, जबकि निचले 50% के पास केवल 6.4% संपत्ति है। इसका मतलब है कि देश के आधे लोग आर्थिक असमानता के शिकार हैं और यह विभाजन लगातार बढ़ता जा रहा है।
आखिरकार, गरीबी की परिभाषा क्या होनी चाहिए?
भारत में गरीबी की परिभाषा को केवल आय के आधार पर परिभाषित करना अब पुराना हो चुका है। वर्तमान कार्यप्रणाली प्रगति का संकेत देती है, लेकिन यह पूरी तस्वीर नहीं दिखाती। गरीबी के वास्तविक प्रभाव को समझने के लिए हमें गरीबी रेखा के अलावा गरिमा रेखा की भी आवश्यकता है। यदि हम 2047 तक विकसित भारत की दिशा में बढ़ने का लक्ष्य रखते हैं, तो हमें गरीबी की परिभाषा को भी बदलने की जरूरत है।