SC vs President: न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका!  उपराष्ट्रपति के बयान से गरमाई बहस, उठे न्यायिक सुधारों के सवाल

SC vs President Jagdeep dhankar statement
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SC vs President: भारत में हमेशा से न्यायपालिका को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा गया है। आमतौर पर अदालतों के फैसलों पर सवाल उठाने की परंपरा नहीं रही, लेकिन हाल के दिनों में कुछ घटनाओं ने इस परिदृश्य को बदल दिया है। ताजा विवाद उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के तीखे बयान से भड़क उठा, जिन्होंने न्यायपालिका पर गंभीर प्रश्न उठाए और सुधार की मांग की।

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उपराष्ट्रपति का सख्त संदेश- SC vs President

राज्यसभा में चर्चा के दौरान उपराष्ट्रपति ने न्यायपालिका की जवाबदेही पर जोर देते हुए कहा कि आज हालात ऐसे बन गए हैं कि संसद द्वारा पारित कानून भी कोर्ट की एक याचिका पर रोक दिए जाते हैं। उन्होंने यह भी चिंता जताई कि अगर संसद के फैसलों को इस तरह चुनौती मिलती रही तो सरकार केवल ‘नाममात्र’ की संस्था बनकर रह जाएगी।

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धनखड़ का गुस्सा केवल सैद्धांतिक नहीं था। हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश यशवंत वर्मा के घर से कथित तौर पर भारी नकदी बरामद हुई, लेकिन अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। उपराष्ट्रपति ने सवाल उठाया कि आम नागरिक पर मामूली शक होने पर भी त्वरित कार्रवाई होती है, फिर जजों पर इतनी नरमी क्यों?

राजनीति ने ली जोरदार एंट्री

धनखड़ के इस बयान के बाद सियासी हलकों में भी भूचाल आ गया। भारतीय जनता पार्टी ने उपराष्ट्रपति के विचारों का समर्थन किया। बीजेपी नेता संबित पात्रा ने कहा कि जजों की नियुक्ति प्रक्रिया और जवाबदेही पर गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है। वहीं कांग्रेस ने इसे न्यायपालिका पर हमला करार दिया। वरिष्ठ वकील और कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने कहा कि सरकार अब कोर्ट को नियंत्रण में लेना चाहती है, जो लोकतंत्र के लिए घातक होगा।

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बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने भी तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि अगर कानून बनाने का काम सुप्रीम कोर्ट करेगा तो संसद भवन को बंद कर देना चाहिए। दिनेश शर्मा ने भी कहा कि संसद और राष्ट्रपति को आदेश नहीं दिया जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट और अनुच्छेद 142 पर बहस

इस पूरे विवाद की पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला है, जिसमें अदालत ने राज्यपालों द्वारा लंबित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समयसीमा तय कर दी थी। अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 201 और 142 का हवाला देकर यह व्यवस्था दी थी।

अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को व्यापक अधिकार देता है कि वह न्याय देने के लिए कानून की खामियों को भर सके। इसी शक्तिशाली अनुच्छेद के तहत सुप्रीम कोर्ट ने भोपाल गैस त्रासदी में मुआवजे का रास्ता साफ किया था, और हाल में एक दलित छात्र के IIT धनबाद में दाखिले के लिए भी इसका प्रयोग किया गया।

संविधान में तीनों स्तंभों का संतुलन

भारतीय संविधान तीन मुख्य स्तंभों — विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका — के बीच संतुलन की व्यवस्था करता है। संसद कानून बनाती है, कार्यपालिका उन्हें लागू करती है, और न्यायपालिका इन कानूनों की संवैधानिक समीक्षा करती है।

सुप्रीम कोर्ट को अधिकार है कि वह किसी भी कानून की संवैधानिक वैधता की जांच करे। अगर कोई कानून मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है या संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है, तो कोर्ट उसे रद्द कर सकती है।

केशवानंद भारती केस की मिसाल

1973 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक केशवानंद भारती केस में फैसला दिया था कि संसद को संविधान संशोधित करने का अधिकार तो है, लेकिन वह संविधान के “मूलभूत ढांचे” को नहीं बदल सकती। यह फैसला आज भी भारतीय संवैधानिक व्यवस्था की रीढ़ है।

यह भी स्पष्ट किया गया कि मूलभूत ढांचे की व्याख्या का अंतिम अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास है। इससे यह भी सुनिश्चित होता है कि सत्ता का संतुलन बना रहे और लोकतंत्र कमजोर न हो।

जस्टिस सिस्टम में पारदर्शिता की मांग

उपराष्ट्रपति के बयान ने न्यायिक पारदर्शिता और जवाबदेही की आवश्यकता पर बहस छेड़ दी है। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि जजों की नियुक्ति प्रक्रिया और उनके आचरण की समीक्षा के लिए कोई प्रभावी तंत्र स्थापित करना जरूरी है।

2015 में संसद ने नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन (NJAC) कानून पारित किया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया था। धनखड़ ने इसे भी संसदीय संप्रभुता पर चोट बताया था।

समाज और संविधान के बीच संतुलन

जहां एक ओर संसद को जनमत का प्रतिनिधि माना जाता है, वहीं सुप्रीम कोर्ट संविधान और मौलिक अधिकारों का रक्षक है। दोनों संस्थाओं के बीच सम्मानजनक संतुलन लोकतंत्र की नींव है।

अदालत ने कई बार कानून के खाली स्थानों को भी भरा है, जैसे 1997 में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए विशाखा गाइडलाइंस बनाना। ऐसे उदाहरण दिखाते हैं कि कोर्ट ने कई बार सामाजिक जरूरतों के मुताबिक कदम उठाए हैं।

आगे का रास्ता

स्पष्ट है कि दोनों संस्थाओं — संसद और न्यायपालिका — को अपनी-अपनी सीमाओं का सम्मान करते हुए काम करना होगा। पारदर्शिता, जवाबदेही और संविधान की सर्वोच्चता को बनाए रखना अब पहले से कहीं अधिक जरूरी हो गया है।

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