UP News: उत्तर प्रदेश के महराजगंज जिले के नौतनवा कस्बे से एक ऐसी खबर सामने आई है, जिसने पूरे समाज को झकझोर कर रख दिया है। यह कहानी सिर्फ गरीबी या लाचारी की नहीं है, बल्कि मानवता, संवेदना और असल धर्म की भी है। यह घटना इंडो-नेपाल बॉर्डर के पास बसे नौतनवा के राजेंद्र नगर की है। यहां रहने वाले लव कुमार पटवा का शनिवार को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। छह महीने पहले ही उनकी पत्नी की भी मौत हो चुकी थी। घर में अब उनके तीन बच्चे ही बचे थे 14 साल का राजवीर, 10 साल का देवराज और एक छोटी बहन। मां-बाप दोनों के न होने के बाद इन मासूमों के सिर पर से पूरी तरह से साया उठ गया।
दो दिन तक कोई मदद को नहीं आया- UP News
पिता की मौत के बाद बच्चों को उम्मीद थी कि कोई रिश्तेदार, पड़ोसी या जान-पहचान वाला मदद करेगा, लेकिन कोई नहीं आया। लाचारी में बच्चों ने शव को दो दिन तक घर में ही रखा। फिर जब बर्दाश्त से बाहर हो गया, तो ठेले पर पिता का शव रखकर तीनों बच्चे अकेले अंतिम संस्कार के लिए निकल पड़े।
श्मशान ने कहा: लकड़ी नहीं, कब्रिस्तान ने कहा: ये हिंदू हैं
जब बच्चे शव लेकर श्मशान पहुंचे, तो वहां लकड़ी की कमी बताकर अंतिम संस्कार से मना कर दिया गया। मजबूरन वे कब्रिस्तान पहुंचे, लेकिन वहां भी यह कहकर लौटा दिया गया कि मृतक हिंदू है, इसलिए दफन नहीं किया जा सकता।
शहर की सड़कों पर एक ठेले पर पिता का शव और साथ में रोते-बिलखते बच्चे… कई लोग देखे, पर किसी ने आगे बढ़कर हाथ नहीं थामा। कुछ ने उन्हें “ड्रामा” या “भीख मांगने का नया तरीका” भी कह दिया।
ठेले पर शव, बच्चे मांगते रहे मदद
जिस ठेले पर लव कुमार पटवा ने अपनी पूरी ज़िंदगी मेहनत की, उसी पर उनकी लाश पड़ी थी। उनके मासूम बच्चे इसी ठेले को खींचते हुए लोगों के आगे मदद की गुहार लगाते रहे। लेकिन समाज का चेहरा तब और शर्मनाक हो गया, जब किसी ने उन पर यकीन करने की बजाय उन्हें सड़क से भगा दिया।
जब हर उम्मीद टूटी, तब मुसलमान भाइयों ने बढ़ाया हाथ
इसी दौरान नगर पालिका के बिस्मिल नगर वार्ड के सभासद प्रतिनिधि राशिद कुरैशी और वार्ड सभासद वारिस कुरैशी को इस दर्दनाक स्थिति की जानकारी मिली। दोनों तुरंत मौके पर पहुंचे और बिना देर किए बच्चों की मदद में जुट गए। उन्होंने लकड़ी, चिता की सारी सामग्री का इंतजाम किया और शव को श्मशान घाट तक पहुंचाया।
रात के अंधेरे में, जब पूरा शहर खामोश था, तब ये दो मुस्लिम भाई एक हिंदू शख्स की चिता को अग्नि देने की व्यवस्था कर रहे थे। उन्होंने पूरी श्रद्धा और सम्मान के साथ हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार लव कुमार पटवा का अंतिम संस्कार करवाया।
“पिता को सम्मान मिला, यही सबसे बड़ी राहत है” – बेटे की आंखों में आंसू
राजवीर ने बताया,
“हमें लगा कि रिश्तेदार आएंगे, लेकिन कोई नहीं आया। श्मशान और कब्रिस्तान से भी लौटा दिया गया। फिर हम ठेले पर शव रखकर लोगों से मदद मांगने लगे।”
फोन कॉल ने दिला दी इंसानियत की जीत
राशिद कुरैशी ने बताया कि उन्हें एक अज्ञात नंबर से फोन आया कि कुछ बच्चे ठेले पर शव रखकर मदद मांग रहे हैं। जब वो पहुंचे तो देखा शव सड़ने लगा था और बदबू के कारण कोई पास नहीं जा रहा था। उन्होंने तुरंत सामग्री का इंतजाम किया और अंतिम संस्कार करवाया।
एक सवाल समाज से भी…
इस घटना ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं, क्या हमारा समाज इतना संवेदनहीन हो गया है कि तीन बच्चों की चीख भी नहीं सुनाई देती? क्या मजहब इंसानियत से बड़ा हो गया है?
जहां एक ओर दो मुस्लिम भाइयों ने मानवता की मिसाल पेश की, वहीं समाज के बाकी हिस्से का बेरुखा चेहरा सामने आ गया।