Uttarakhand Cloudburst: उत्तराखंड इस बार ऐसा मानसून झेल रहा है, जो न सिर्फ रिकॉर्ड तोड़ रहा है, बल्कि लोगों की जान और जीवन दोनों को भारी नुकसान पहुंचा रहा है। 1 जून से 5 अगस्त 2025 तक, यानी महज 66 दिनों में से 43 दिन एक्सट्रीम वेदर वाले रहे मतलब या तो तेज बारिश, बाढ़, या भूस्खलन। ये आंकड़ा पिछले चार सालों में सबसे खराब है।
दिल्ली के सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) और डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट बताती है कि 2022 में पूरे मॉनसून सीजन में 44 दिन ऐसे थे, और इस बार सिर्फ आधे मानसून में ही ये आंकड़ा छू लिया गया है। ये हालात डराते हैं, क्योंकि अगर यही सिलसिला अगले दो महीनों तक चला, तो ये साल उत्तराखंड के लिए सबसे खतरनाक मॉनसून साबित हो सकता है।
लगातार बढ़ रहा है खतरा- Uttarakhand Cloudburst
साफ दिख रहा है कि हर साल स्थिति बिगड़ती जा रही है। 2022 में जहां 33% मॉनसून के दिन अति-मौसम वाले थे, 2023 में ये 47% हो गए, 2024 में 59% और अब 2025 में अब तक 65% ऐसे दिन दर्ज हो चुके हैं। अगर यही चलता रहा, तो इस बार कुल 83 से 86 दिन तक एक्सट्रीम वेदर हो सकता है यानी साल का सबसे खराब मानसून।
जान भी गई और घर भी
अब तक कम से कम 48 लोगों की मौत इन आपदाओं में हो चुकी है। ये आंकड़ा 2022 की कुल मौतों (56) का 86% और 2023 की 104 मौतों का लगभग आधा है और अभी तो आधा मानसून बाकी है।
सबसे ताजा घटना 5 अगस्त को उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में सामने आई, जहां बाढ़ में 4 लोगों की मौत हुई और 100 से ज्यादा लोग लापता हैं। ये बाढ़ अचानक आई, लोगों को भागने का मौका तक नहीं मिला।
क्लाउडबर्स्ट या कुछ और?
उत्तराखंड सरकार ने इसे “क्लाउडबर्स्ट” कहा, लेकिन मौसम विभाग (IMD) ने इससे इनकार किया। क्लाउडबर्स्ट तब माना जाता है जब एक घंटे में 10 सेमी से ज्यादा बारिश हो, लेकिन यहां बारिश कई घंटों तक लगातार हुई। रिसर्चर अक्षय देओरस के मुताबिक, उत्तरकाशी में 5-6 अगस्त के बीच औसत से 421% ज्यादा बारिश हुई, कहीं-कहीं तो 400 मिमी से भी ज्यादा।
जलवायु परिवर्तन और तैयारी की कमी
वैज्ञानिक मान रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन इस संकट की सबसे बड़ी वजह है। इस साल मानसून सीजन उत्तराखंड में 1901 के बाद का सबसे गर्म रहा। जून में अधिकतम तापमान सामान्य से 3.8°C और न्यूनतम 1.8°C ज्यादा रहा। गर्म हवा ज्यादा नमी सोखती है, जिससे बारिश ज्यादा और खतरनाक होती है।
लेकिन सिर्फ मौसम को दोष देना ठीक नहीं। तैयारी की कमी, कमजोर चेतावनी तंत्र और बेतरतीब निर्माण ने हालात और बिगाड़ दिए हैं। 2014 के बाद से विकास की दौड़ में पहाड़ों में सड़कों और इन्फ्रास्ट्रक्चर का तेजी से निर्माण हुआ है, जिससे जल निकासी बिगड़ी और जंगल कटे।
हिमालयी विशेषज्ञ शेखर पाठक कहते हैं कि पिछले दशक में पर्यावरण को नजरअंदाज कर जो विकास किया गया, उसी का नतीजा आज के आपदा बनकर सामने आ रहा है।
धराली की बाढ़ – हिमालय की चेतावनी
धराली की बाढ़ सिर्फ एक गांव की त्रासदी नहीं, ये पूरे हिमालय क्षेत्र के लिए चेतावनी है। रिपोर्ट बताती है कि पिछले तीन सालों में 13 हिमालयी राज्यों में 70% मॉनसून दिन एक्सट्रीम वेदर वाले रहे हैं। मतलब खतरा अब स्थानीय नहीं, क्षेत्रीय है।
सेना की राहत में कोशिश
भारतीय सेना, NDRF और स्थानीय प्रशासन लगातार राहत और बचाव कार्यों में जुटे हुए हैं। हेलिकॉप्टर से फंसे लोगों को निकाला जा रहा है, लेकिन लगातार बारिश और टूटे रास्ते राहत कार्यों में बड़ी चुनौती बन रहे हैं।
अब क्या करना होगा?
अब वक्त आ गया है कि सरकार और समाज दोनों मिलकर इस संकट को गंभीरता से लें।
- मौसम निगरानी सिस्टम को मजबूत करना
- समय पर चेतावनी पहुंचाना
- अवैज्ञानिक निर्माणों पर रोक
- जंगल बचाना और जल संरक्षण को बढ़ावा देना
इन सब पर फौरन काम करना जरूरी है। क्योंकि अगर अभी नहीं चेते, तो आने वाले सालों में उत्तराखंड की हर बरसात और भी डरावनी हो सकती है।