Bihar Assembly Elections 2025: बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण की 121 सीटों पर मतदान 28 अक्टूबर को हुआ, और मतदाताओं की उत्साही भागीदारी ने पूरे राज्य को हैरान कर दिया। इस बार मतदान प्रतिशत में एक उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई, जो पिछली बार के मुकाबले 8.5% अधिक है। चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, इस चरण में 64.69% मतदान हुआ, जबकि 2020 में इसी चरण में 56% मतदान हुआ था। यह वृद्धि बिहार की सियासत में काफी महत्व रखती है, और इसे विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए चेतावनी और उम्मीद दोनों के रूप में देखा जा रहा है।
पहले चरण में किसे मिली बढ़ी हुई वोटिंग? (Bihar Assembly Elections 2025)
बिहार के पहले चरण में 18 ज़िलों की 121 विधानसभा सीटों पर चुनाव हुआ। इन क्षेत्रों में इस बार के मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी देखी गई है। जहां मुज़फ़्फ़रपुर और समस्तीपुर जैसे जिलों में 70% से अधिक मतदान हुआ, वहीं पटना में यह आंकड़ा सबसे कम 57.93% रहा। यह आंकड़े बिहार के चुनावी इतिहास में महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं, क्योंकि पहले चरण में 64.69% वोटिंग ने राज्य के राजनीतिक भविष्य को लेकर अटकलों को जन्म दिया है।
साल 2020 में पहले चरण में कुल 3.70 करोड़ वोटर्स में से 2.06 करोड़ ने मतदान किया था, लेकिन इस बार कुल 3.75 करोड़ वोटर्स में से बड़ी संख्या में लोगों ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। इस प्रकार, पिछले चुनाव से 5 लाख अधिक वोटर्स होने के बावजूद, मतदान प्रतिशत में करीब 8% की बढ़ोतरी हुई है।
बिहार का ऐतिहासिक वोटिंग पैटर्न
बिहार का चुनावी इतिहास वोटिंग पैटर्न के लिहाज से काफी दिलचस्प है। 1951-52 से लेकर 2020 तक हुए चुनावों में इस राज्य में कभी भी इतनी बड़ी वोटिंग नहीं हुई थी। 2000 के विधानसभा चुनावों में 62.57% और 1998 के लोकसभा चुनाव में 64.60% मतदान के रिकॉर्ड को इस बार के पहले चरण ने चुनौती दी है। 2020 में पहले चरण में जहां 56.1% वोटिंग हुई थी, वहीं इस बार 64.69% वोटिंग ने नए रिकॉर्ड की ओर इशारा किया है।
बिहार में जब भी वोटिंग प्रतिशत बढ़ा है, इसके सियासी असर भी दिखे हैं। आमतौर पर यह माना जाता है कि जब अधिक मतदान होता है, तो इसका मतलब यह हो सकता है कि जनता सत्ता के खिलाफ बदलाव चाहती है (एंटी-इंकंबेंसी)। हालांकि, कभी-कभी ज्यादा मतदान का मतलब सरकार के प्रति समर्थन (प्रो-इंकंबेंसी) भी हो सकता है, और यह चुनावी नतीजों के बारे में अभी कोई सटीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता है।
वोटिंग में बढ़ोतरी के सियासी संकेत
बिहार में 5% से ज्यादा वोटिंग बढ़ने से चुनाव परिणामों में बदलाव आने की संभावना काफी बढ़ जाती है। ऐतिहासिक रूप से जब भी वोटिंग में इस तरह का इजाफा हुआ है, बिहार में सरकार बदल गई है। उदाहरण के तौर पर, 1967 के चुनाव में वोटिंग प्रतिशत 44.5% से बढ़कर 51.5% हो गया था, जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस की सरकार गिर गई और पहली बार गैर-कांग्रेसी दलों ने सरकार बनाई। इसी तरह, 1980 और 1990 में भी जब मतदान में वृद्धि हुई, तो सरकारें बदल गईं।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि इस बार बढ़ी हुई वोटिंग का असर किस ओर जाएगा। क्या यह बढ़ी हुई वोटिंग नीतीश कुमार की अगुवाई वाली महागठबंधन सरकार के खिलाफ जाएगी या फिर सत्ता पक्ष के समर्थन में होगी? यह भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी, लेकिन राज्य के सियासी माहौल में यह बदलाव निश्चित तौर पर महत्तवपूर्ण माना जा रहा है।
बिहार के सियासी समीकरण
बिहार के पहले चरण के चुनावी आंकड़ों को देखा जाए तो महागठबंधन और एनडीए के बीच कांटे की टक्कर रही थी। 2020 के चुनाव में महागठबंधन ने 61 सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि एनडीए को 59 सीटें मिलीं थीं। हालांकि, इस बार समीकरण थोड़ा बदल गए हैं। 2020 में एनडीए से अलग चुनाव लड़ने वाले चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा इस बार एनडीए का हिस्सा हैं, जबकि मुकेश सहनी महागठबंधन में शामिल हुए हैं। इस बार चुनाव में 104 सीटों पर सीधा मुकाबला है, जबकि 17 सीटों पर त्रिकोणीय लड़ाई देखने को मिल रही है।
वोटिंग में इस तरह की बढ़ोतरी को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि पहले चरण के परिणाम राज्य की राजनीतिक दिशा तय कर सकते हैं। खासकर मिथिलांचल, कोसी, मुंगेर और भोजपुर बेल्ट के परिणामों का असर सियासी समीकरण पर पड़ेगा।
आखिरी चरण और चुनावी परिणाम
पहले चरण की 121 सीटों पर कुल 1314 उम्मीदवार मैदान में थे, जिनकी किस्मत ईवीएम में कैद हो गई। चुनाव के अगले चरण में 122 सीटों पर मतदान होना है, और यह जानना दिलचस्प होगा कि क्या इन सीटों पर भी मतदाता इसी तरह का उत्साह दिखाएंगे। इस बढ़ी हुई वोटिंग के साथ यह माना जा सकता है कि इस बार बिहार के चुनाव परिणामों में कुछ न कुछ बदलाव जरूर आएगा, और इससे सत्ता में किसी बड़े बदलाव की संभावना भी बनती है।
