Bihar Chara Ghotala story: बिहार की राजनीति में कई उतार-चढ़ाव आए हैं, लेकिन ऐसा कोई घोटाला नहीं हुआ जिसने राज्य की राजनीति, प्रशासन और न्याय व्यवस्था तीनों को एक साथ झकझोर कर रख दिया हो। यह कहानी सिर्फ भ्रष्टाचार की नहीं, बल्कि उस सिस्टम के सड़ने की है, जहां सालों तक सरकारी खजाना लुटता रहा और कोई पूछने वाला नहीं था। हम बात कर रहे हैं ‘चारा घोटाले’ की, जिसकी गूंज आज भी बिहार के इतिहास में गूंजती है।
1970 के दशक में रखी गई घोटाले की नींव- Bihar Chara Ghotala story
यह मामला सिर्फ एक दो साल की लूट का नहीं, बल्कि एक ऐसा खेल था जो दशकों तक चुपचाप चलता रहा। दरअसल 1970 के दशक में बिहार के पशुपालन विभाग में फर्जी बिल बनाकर पैसा निकाला जाने लगा। शुरू में ये रकम छोटी होती थी, लेकिन जैसे-जैसे अधिकारियों, नेताओं और सप्लायर्स की मिलीभगत बढ़ी, चोरी भी करोड़ों में पहुंच गई।
विभाग में पशुओं के चारे, दवाइयों, ट्रांसपोर्ट और उपकरणों के नाम पर बिल बनाए जाते थे, जबकि असल में ये सामान कभी खरीदे ही नहीं गए। और यह सब बड़ी सफाई से होता रहा क्योंकि सबका हिस्सा बंटा हुआ था।
1985 में मिली पहली चेतावनी, लेकिन हुआ कुछ नहीं
1985 में तत्कालीन कैग (CAG) टी.एन. चतुर्वेदी ने बिहार सरकार को रिपोर्ट दी थी कि विभाग में गड़बड़झाला हो रहा है। अकाउंट्स में देर से रिपोर्टिंग और हिसाब-किताब में गड़बड़ी के चलते शक जताया गया था। लेकिन इस चेतावनी को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया।
दरअसल, भ्रष्टाचार को राजनीतिक छत्रछाया मिल चुकी थी। कोई अधिकारी अगर आवाज उठाता, तो उसे ही सजा मिलती।
1992 में सतर्कता विभाग ने खोले राज, लेकिन गवाह बना अपराधी
1992 में सतर्कता विभाग के निरीक्षक बिधु भूषण द्विवेदी ने एक अहम रिपोर्ट सौंपी, जिसमें उन्होंने मुख्यमंत्री स्तर तक की संलिप्तता बताई। लेकिन उन्हें इनाम देने की बजाय सस्पेंड कर दिया गया और उनका तबादला कर दिया गया। बाद में कोर्ट के आदेश पर बहाल हुए और चारा घोटाले के अहम गवाह बने।
1996 में हुआ बड़ा धमाका: सामने आया असली खेल
जनवरी 1996 में युवा IAS अधिकारी अमित खरे ने रांची के चाईबासा कोषागार में छापा मारा। वहां से जो दस्तावेज मिले, उसने सबकी आंखें खोल दीं। करोड़ों के फर्जी बिल, काल्पनिक पशु और ग़ायब सप्लायर्स सब सामने आ गए। यह बिहार के इतिहास की सबसे बड़ी लूट थी।
पत्रकारिता ने दिखाई ताकत, देशभर में मचा हड़कंप
स्थानीय पत्रकार रवि एस. झा ने इस घोटाले को गहराई से उठाया और यह राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में आ गया। उनकी रिपोर्ट में बताया गया कि सिर्फ अधिकारी ही नहीं, बल्कि मंत्री, विधायक और यहां तक कि मुख्यमंत्री तक की इसमें भूमिका थी।
जांच पहुंची CBI तक, शुरू हुई सियासी बवाल
जनता का गुस्सा बढ़ रहा था। 1996 में पटना हाई कोर्ट ने इस मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी। सीबीआई ने जब जांच शुरू की, तो चौंकाने वाले नाम सामने आए – मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव, पूर्व सीएम जगन्नाथ मिश्रा, कई IAS अधिकारी और सैकड़ों सरकारी कर्मचारी।
लालू की कुर्सी गई, राबड़ी बनीं सीएम
1997 में जब सीबीआई ने राज्यपाल से लालू यादव पर मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी और उसे मंजूरी मिल गई, तो लालू ने जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल (RJD) बनाई। 25 जुलाई 1997 को उन्होंने इस्तीफा दिया और अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया।
यह कदम अपने आप में अभूतपूर्व था और इससे बिहार की राजनीति पूरी तरह बदल गई।
मुकदमे, गिरफ्तारियां और जेल की कहानी
लालू यादव को पहली बार 1997 में गिरफ्तार किया गया। उसके बाद 1998 और 2000 में भी उन्हें हिरासत में लिया गया। घोटाले की जांच के दौरान अदालत में 20 ट्रकों में दस्तावेज लाए गए, गवाहों की लाइनें लगीं और सालों तक केस चलते रहे।
संपत्ति से लेकर सजा तक – बढ़ती मुसीबतें
1998 में लालू और राबड़ी देवी पर आय से अधिक संपत्ति का केस दर्ज हुआ। उन पर आरोप था कि उन्होंने अवैध रूप से 46 लाख की संपत्ति बनाई। हालांकि 2006 में कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया।
लेकिन चारा घोटाले से जुड़े केस चलते रहे। 2013 में सीबीआई कोर्ट ने लालू को दोषी ठहराया और उनकी लोकसभा सदस्यता चली गई। बाद में उन्हें साढ़े तीन साल की सजा और 5 लाख जुर्माने की सजा मिली।
डोरंडा केस – सबसे बड़ा उदाहरण
इस घोटाले में सबसे अहम केस रहा डोरंडा ट्रेजरी का। इसमें 600 से ज्यादा गवाहों की गवाही रिकॉर्ड हुई और 50,000 से ज्यादा दस्तावेज पेश किए गए। इस केस में कुल 124 लोग आरोपी थे, जिनमें से 89 को दोषी करार दिया गया।
जगन्नाथ मिश्रा को भी नहीं छोड़ा कानून
आपको बता दें, पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा भी इस केस में आरोपी थे। शुरुआत में उन्हें दोषी ठहराया गया, लेकिन बाद में सबूतों के अभाव में कोर्ट ने 2018 में उन्हें बरी कर दिया। 2019 में उनका निधन हो गया।
अब तक कितना पैसा मिला वापस?
वहीं, यह सवाल अब भी बना हुआ है। घोटाले में सैकड़ों लोगों को सजा मिली, केस दर्ज हुए, नेता जेल गए… लेकिन जो 950 करोड़ रुपये सरकारी खजाने से लूटे गए थे, उनका बड़ा हिस्सा अब तक वापस नहीं आया।
चारा घोटाले ने यह साफ कर दिया कि जब नेता, अफसर और सिस्टम मिल जाएं तो भ्रष्टाचार रुकना मुश्किल हो जाता है। लेकिन यही घोटाला यह भी दिखाता है कि जब सच को दबाने की कोशिश होती है, तब एक सच्चा अफसर, एक ईमानदार पत्रकार और जनता की आवाज मिलकर पूरे सिस्टम को हिला सकती है।
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