डुमल गढ़ साहिब: इसी जगह पर गुरु गोविंद सिंह जी ने किया था ‘खालसा पंथ’ को लेकर ये ऐलान

Gurdwara Dumal Garh Sahib
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हम सब जानते है कि सिखों का पवित्र और धार्मिक स्थल उनका गुरुद्वारा होता है. हमारे देश में मुख्य पांच गुरूद्वारे है. जहाँ तख़्त बने हुए है. जिन्हें सिखों के गुरुओं ने बनवाया था. लेकिन समय समय सिख गुरुओ के अनुयायियों ने भी अपने गुरुओ की याद में कुछ गुरुद्वारों का निर्माण करवाया था. आज हम ऐसे ही एक गुरूद्वारे के बारे में बात करेंगे, जिसका सम्बंध सिखों के गुरु से है. उस गुरूद्वारे का नाम डुमल गढ़ साहिब है. जिसकी कहानी गुरु साहिब से से जुडी हुई है. डुमल गढ़ साहिब गुरुद्वारा आनादंपुर में स्थित है, जो गुरुद्वारा केसगढ़ साहिब से उत्तर में स्थित है. गुरु साहिब जी यही अपने पुत्रो को प्रशिक्षण देते थे. इसी स्थान का प्रयोग खेल के मैदान के रूप में भी किया जाता था. जब नवम्बर 1703 को बिलासपुर के शासक ने आनंदपुर पर हमला किया था, तो गुरु साहिब ने यही एक बरगद के निचे बैठे थे .

दोस्तों, आईये आज हम आपको बतायेंगे कि डुमल गढ़ साहिब गुरुदारे की कहानी किस प्रकार गुरु साहिब से जुडी है और क्यों गुरु साहेब ने घोषणा की थी कि खालसा पंथ का ध्वज कभी नहीं गिरेगा?

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खालसा पंथ का ध्वज कभी नहीं झुकेगा 

डुमल गढ़ साहिब गुरुद्वारा आनादंपुर में स्थित है, जो गुरुद्वारा केसगढ़ साहिब से उत्तर में स्थित है. जब नवम्बर 1703 को बिलासपुर के शासक ने आनंदपुर पर हमला किया था, तो युद्ध क्षेत्र में सिखों की सेना का नेत्रत्व भाई मान सिंह कर रहे थे, जन्होने पहाड़ी सेना का सामना काफी बहादुरी से किया था. इस लड़ाई के दौरान भाई मान सिंह घायल हो गए और खालसा धवज टूट गया था.

जिसके बाद एक सिख सैनिक ने इस घटना की ख़बर गुरु साहिब को दी, इस बाद गुरु साहिब ने अपनी पगड़ी के निचे से तक फर्रा फाड़ दिया और अपने पकड़ी में उसे लटकते झंडे के ऊपर रख दिया. और साथ ही गुरु हस्बे ने घोषणा की, कि खालसा ध्वज न कभी गिरेगा न झुकेगा.

गुरु गोविंद सिंह साहिब जी ने कहा अब से यह हर सिख नेता की पगड़ी का हिस्सा होगा. उस समय गुरु साहिब के पास कुछ प्रमुख सिख बैठे हुए थे. उन सभी सिखों ने अपनी पगड़ी के निचे से फरटे फाडे और ध्वज के रूप में लहराते छोड़ दिए थे. इसके बाद फर्रा की परम्परा हर सिख नेता के लिए लागू हो गयी थी. जबसे हर सिख नेता अपनी पगड़ी में फर्रा छोड़ता है.

हम आपको बता दे कि गुरूद्वारे डुमल गढ़ साहिब को दुमलगढ़ के नाम से भी जाना जाता है. यह नाम 1703 में हुई दुमाला यानि फर्रा घटना के बाद पड़ा था. यह जगह गुरु साहिब के पुत्रो को समर्पित है. जहाँ वह अभ्यास किया करते थे.

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