Sanchi Stupa: मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में स्थित विश्वप्रसिद्ध सांची स्तूप न सिर्फ अपनी स्थापत्य कला के लिए जाना जाता है, बल्कि यह बौद्ध धर्म की गहरी आध्यात्मिक विरासत का भी प्रतीक है। बहुत कम लोग जानते हैं कि इसी पवित्र स्थल में भगवान बुद्ध के दो प्रिय शिष्य सारिपुत्र और महामोदग्लायन की अस्थियां सुरक्षित रखी गई हैं। इन पवित्र अस्थियों को देखने का सौभाग्य श्रद्धालुओं को साल में सिर्फ एक बार, नवंबर के आखिरी शनिवार और रविवार को ही मिलता है।
पवित्र अस्थियों के दर्शन का वार्षिक अवसर- Sanchi Stupa
हर साल नवंबर के अंतिम सप्ताह में सांची में एक विशेष आयोजन होता है, जब स्तूप परिसर के मंदिर के तलघर में रखे इन अस्थि कलशों को बाहर निकाला जाता है। इस दौरान सांची में आस्था और श्रद्धा का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। थाईलैंड, श्रीलंका, भूटान, वियतनाम, मलेशिया और जापान जैसे देशों से हजारों बौद्ध अनुयायी यहां पहुंचते हैं।
नेहरू ने रखी थी मेले की नींव
खबरों की मानें तो, सांची में इन अस्थियों को 1952 में पहली बार स्थापित किया गया था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू स्वयं यहां पहुंचे थे। उन्होंने उस समय इस आयोजन की नींव रखी और एक दिवसीय मेले की शुरुआत की थी। बाद में वर्ष 2010 में मध्यप्रदेश सरकार ने इसे तीन दिवसीय उत्सव का रूप दिया। हालांकि, पिछले चार वर्षों से यह आयोजन दो दिनों तक सीमित कर दिया गया है।
अस्थियों की रोमांचक यात्रा
इन पवित्र अवशेषों की यात्रा भी इतिहास से भरी है। बुद्ध के प्रिय शिष्यों सारिपुत्र और महामोदग्लायन की अस्थियां सांची के स्तूप संख्या तीन से वर्ष 1851 में ब्रिटिश पुरातत्वविद अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खुदाई के दौरान प्राप्त हुई थीं। बाद में इन्हें ब्रिटेन के अल्बर्ट म्यूजियम, लंदन में भेज दिया गया था।
वर्ष 1947 में महाबोधि सोसायटी के प्रयासों से ये अस्थियां वापस लाई गईं और 14 मार्च 1947 को इन्हें श्रीलंका भेजा गया। वहां से 12 जनवरी 1949 को यह पुनः भारत लौटीं और बोधगया में रखी गईं। अंततः इन्हें सांची लाकर स्थापित किया गया जहां आज भी ये बौद्ध आस्था की सबसे पवित्र निशानी मानी जाती हैं।
जयश्री महाबोधि विहार की स्थापना
सांची में इन अवशेषों को सम्मानपूर्वक रखने के लिए जयश्री महाबोधि विहार का निर्माण 1 फरवरी 2007 को किया गया था। उस समय तिब्बत के आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा ने पारंपरिक रीति से इन अस्थियों को यहां विराजित किया था। तब से हर साल 1 से 3 फरवरी के बीच यहां भव्य वार्षिकोत्सव मनाया जाता है।
तीन दिनों तक श्रद्धालु भगवान बुद्ध और उनके दोनों शिष्यों के दर्शन करते हैं। अंतिम दिन अस्थि कलश के साथ एक विशाल झांकी निकाली जाती है, जिसमें विदेशी बौद्ध मठों के भिक्षु, स्थानीय श्रद्धालु और स्कूली बच्चे शामिल होते हैं।
सांची बौद्ध स्तूप का ऐतिहासिक गौरव
आपको जानकर हैरानी होगी कि सांची का बौद्ध स्तूप तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया था, बौद्ध धर्म का महत्वपूर्ण प्रतीक है। यह स्तूप एक अर्धगोलाकार गुंबद के रूप में स्थित है और इसके आसपास के क्षेत्र में बुद्ध के जीवन से जुड़े कई महत्वपूर्ण दृश्य और कलाकृतियाँ उकेरी गई हैं। विशेष रूप से, इस स्तूप के चारों ओर जो सुंदर तोरण द्वार स्थित हैं, वे न केवल वास्तुकला के दृष्टिकोण से बेहद आकर्षक हैं, बल्कि इनमें बुद्ध के जीवन के महत्वपूर्ण घटनाओं को कलात्मक तरीके से दर्शाया गया है।
यह तोरण द्वार बुद्ध के जीवन के विभिन्न पहलुओं को, जैसे ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण, को प्रतीकात्मक रूप से चित्रित करते हैं। खास बात यह है कि इस समय बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण प्रचलन में नहीं था, इसलिए इन प्रतीकों के माध्यम से उनकी उपस्थिति को दर्शाया गया। उदाहरण के लिए, अशोक चक्र, हाथी, घोड़ा और वट वृक्ष के चित्र बुद्ध- के जीवन के महत्वपूर्ण संकेतों के रूप में उकेरे गए हैं।
यूनेस्को की विश्व धरोहर में सांची का स्थान
आपको बता दें, सांची को 1989 में यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल के रूप में घोषित किया गया था, जो इसके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को साबित करता है। यह स्थल न केवल बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए एक धार्मिक स्थान है, बल्कि यह इतिहासकारों और कला प्रेमियों के लिए भी आकर्षण का केंद्र बन चुका है। सांची के स्तूप परिसर में स्थित संग्रहालय में प्राचीन बौद्ध मूर्तियाँ, मुद्राएं, अभिलेख और अन्य ऐतिहासिक अवशेष संरक्षित हैं, जो भारतीय इतिहास और संस्कृति का गहरा प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
सांची की वास्तुकला और इस स्थल का ऐतिहासिक महत्व बेमिसाल है। हजारों साल बाद भी, सांची का स्तूप अपनी भव्यता और स्थिरता के साथ खड़ा है, जो इसके निर्माणकला और स्थापत्य की अद्वितीयता को दर्शाता है। यही कारण है कि यहां आने वाले पर्यटक और इतिहास प्रेमी इसे किसी खजाने से कम नहीं मानते।
वैश्विक श्रद्धालुओं का सांची में आना
बुद्ध पूर्णिमा के दिन सांची बौद्ध स्तूप पर केवल भारतीय श्रद्धालु ही नहीं, बल्कि श्रीलंका, म्यांमार, जापान और भूटान जैसे देशों से भी बौद्ध भिक्षु और श्रद्धालु पहुंचे थे। ये श्रद्धालु न केवल धार्मिक पूजा-अर्चना में भाग लेते हैं, बल्कि यहां आकर अपने धार्मिक संवाद को भी साझा करते हैं। यह अंतर्राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक विविधता का एक बेहतरीन उदाहरण है, जो इस पवित्र स्थल की वैश्विक महत्वपूर्णता को दर्शाता है।
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