Dr. Ambedkar Buddha Painting: जब भी डॉ. भीमराव अंबेडकर का नाम लिया जाता है, आमतौर पर संविधान निर्माता, समाज सुधारक, या दलितों के मसीहा जैसे विशेषण याद आते हैं। लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि वे एक संवेदनशील कलाकार भी थे। एक ऐसे कलाकार, जिन्होंने अपनी कला के जरिए पूरे दर्शन को नया अर्थ दिया। और उनकी बनाई भगवान बुद्ध की खुली आंखों वाली पहली पेंटिंग इसका बेहतरीन उदाहरण है।
जब आंखें सिर्फ बंद नहीं थीं, खुली भी थीं- Dr. Ambedkar Buddha Painting
भारत में सदियों से बुद्ध की मूर्तियों और चित्रों में आंखें बंद होती थीं। ध्यान, शांति और समाधि के प्रतीक के रूप में बुद्ध को अक्सर आत्ममग्न मुद्रा में दिखाया जाता रहा है। लेकिन डॉ. अंबेडकर ने पहली बार बुद्ध को खुली आंखों के साथ चित्रित किया — यह सिर्फ एक पेंटिंग नहीं थी, यह दर्शन, राजनीति और सामाजिक न्याय का एक नया प्रतीक बन गई।
बाबासाहेब का मानना था कि दुनिया के दुःख को समझने के लिए आंखें खुली होनी चाहिए। वे कहते थे, “मुझे एक चलता-फिरता बुद्ध चाहिए।” यानी एक ऐसा बुद्ध जो सिर्फ ध्यान में लीन न हो, बल्कि समाज के दुख-दर्द को देखे, समझे और उसका हल खोजे।
कला में भी थे उतने ही गंभीर
बहुत कम लोग जानते हैं कि अंबेडकर एक अच्छे चित्रकार भी थे। उनका झुकाव कला की ओर बचपन से था। उन्होंने बी.आर. मदिलागेकर से चित्रकला सीखी, पेंटिंग पर कई किताबें पढ़ीं और यहां तक कि विंस्टन चर्चिल की ‘पेंटिंग ऐज़ अ पासटाइम’ नामक किताब ने उनके भीतर कलाकार को पूरी तरह से जगा दिया। जब वे चित्र बनाते थे, तो उसमें पूरी तरह डूब जाते थे।
उनकी पेंटिंग ‘खुली आंखों वाला बुद्ध’ कोई साधारण कला कृति नहीं थी। यह उनकी पूरी वैचारिक यात्रा, उनके संघर्ष और उनके क्रांतिकारी सोच की झलक थी। उन्होंने साफ कहा था — “बंद आंखें दुःख के आक्रमणों को नहीं देख पातीं, और आंखें खुली रखना ज़रूरी है, ताकि अन्याय को पहचाना जा सके।”
बुद्ध की आंखें: दर्शन की नई शुरुआत
डॉ. अंबेडकर की यह खुली आंखों वाली बुद्ध पेंटिंग ‘चरथ भिक्खु’, यानी चलने वाले भिक्षु की अवधारणा से जुड़ी थी। वे मानते थे कि बुद्ध सिर्फ विचार नहीं, क्रिया हैं। उन्होंने कलाकारों से कहा था कि “अब से सभी आंबेडकरवादी चित्रकारों को खुली आंखों वाला बुद्ध बनाना चाहिए।” यह अब एक आंदोलन बन चुका है — Ambedkarite Art Movement।
सिर्फ कला नहीं, क्रांति थी ये
आपको बता दें, बाबासाहेब की यह पेंटिंग किसी धार्मिक आस्था की अभिव्यक्ति नहीं थी, यह ‘जाति उन्मूलन’ की क्रांतिकारी भावना से जुड़ी थी। यह उतनी ही विद्रोही थी जितनी उनकी 22 प्रतिज्ञाएं, उतनी ही गूढ़ थी जितनी ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ और उतनी ही रचनात्मक जितनी भारत का संविधान।
बुद्ध की खुली आंखें न केवल एक कला का प्रतीक बन गईं, बल्कि वे सजगता, विरोध, जागरूकता और न्याय के दर्शन की शुरुआत भी थीं।
बाबासाहेब: कला के माध्यम से चेतना का प्रसार
यह बात आज शायद और ज़्यादा ज़रूरी हो गई है, जब हम अक्सर अंबेडकर को सिर्फ संविधान निर्माता के रूप में सीमित कर देते हैं। जबकि हकीकत यह है कि वे एक ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व थे जिन्होंने श्रमिकों के लिए 8 घंटे का काम तय किया, महिलाओं के अधिकारों के लिए हिंदू कोड बिल पेश किया, और डबल डॉक्टरेट हासिल करने वाले पहले भारतीय बने।
उनकी पेंटिंग और उनका दर्शन, दोनों ही एक साझा उद्देश्य की ओर इशारा करते हैं — एक ऐसा समाज जहां आंखें खुली हों, अन्याय को देखा जाए और उसके खिलाफ आवाज उठाई जाए।
डॉ. अंबेडकर की बनाई ‘खुली आंखों वाला बुद्ध’ महज़ एक कलाकृति नहीं है। यह इतिहास का एक अहम मोड़ है, जहां कला ने आंखें खोलीं और समाज को नया रास्ता दिखाया। बाबासाहेब ने बुद्ध को केवल ध्यानस्थ नहीं, जागरूक और सक्रिय रूप में देखा और यहीं से शुरू हुई एक नई क्रांति की कहानी, जो आज भी चल रही है।
इसलिए जब भी आप बुद्ध की आंखों को खुला देखें, याद रखिए यह सिर्फ एक चित्र नहीं है, यह बाबासाहेब की चेतना का प्रतिबिंब है, जो आज भी हमें देखने, समझने और बदलने की प्रेरणा देता है।
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