Caste discrimination in cities: जाती के नाम पर भेदभाव अब भी मौजूद है, ये बात अगर किसी गांव की होती तो शायद आप सर हिला देते, “हां, वहां तो होता ही है…”
लेकिन क्या हो अगर हम कहें कि आज मुंबई, दिल्ली, बैंगलुरु जैसे शहर जिन्हें हम ‘प्रगतिशील’, ‘एजुकेटेड’ और ‘आधुनिक’ कहते हैं वहीं पर जातिवाद सबसे शातिर और छिपे हुए तरीके से ज़िंदा है?
‘’हां, अब जाति पूछी नहीं जाती, खोजी जाती है — आपके नाम से, आपकी भाषा से, खाने के तरीकों से, और कभी-कभी तो सिर्फ आपकी चुप्पी से।
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और यही बात डरावनी है। कहने को तो शहरों को ‘मेट्रो सिटीज’, ‘डायवर्स’, और ‘प्रोग्रेसिव’ कहा जाता है पर सच्चाई ये है कि जातिवाद यहां भी ज़िंदा है। फर्क बस इतना है कि गांवों में ये ज़ोर से चिल्लाता है, और शहरों में धीमे से कान में फुसफुसाता है।
तो आज बात करेंगे उस शहरी जातिवाद की, जो दिखता नहीं लेकिन हर जगह मौजूद है। कभी कॉलेज की कैंटीन में, कभी ऑफिस की मीटिंग में, कभी किराए के फ्लैट के बाहर, और कभी रिश्तों के अंदर।
और सबसे डरावनी बात? हम में से कई लोग इसे ‘नॉर्मल’ मान चुके हैं।
जाति सिर्फ गांवों में नहीं, शहरों में भी है मौजूद- Caste discrimination in cities
हमारा मानना है कि शहरों में जाति जैसी पुरानी सोच खत्म हो गई है, लेकिन हकीकत इसके बिलकुल उलट है। शहरों में जाति भेदभाव अब खुले तौर पर नहीं दिखता, लेकिन वह और भी परतदार और चालाकी से पनप रहा है। मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों में भी जाति के नाम पर भेदभाव होता है चाहे वह हाउसिंग मार्केट हो, नौकरी के मौके हों, या यहां तक कि सामाजिक संबंध हों।
2022 में Political and Economic Weekly ने मुंबई और दिल्ली के बारे में एक रिसर्च प्रकाशित की। इसमें पाया गया कि शहरों के हाउसिंग मार्केट्स में भी जाति आधारित सेग्रिगेशन मौजूद है। उच्च जातियों के लोग बेहतर इलाकों में रहते हैं, जबकि अनुसूचित जाति-जनजाति (SC/ST) और मुस्लिम समुदाय के लोग गरीब क्षेत्रों में रहने को मजबूर हैं, जहां पानी, स्वच्छता और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं भी ठीक से उपलब्ध नहीं होतीं। धारावी जैसे इलाके मुंबई में इसी समस्या का ज्वलंत उदाहरण हैं।
शहरों में जाति, धर्म और वर्ग का नक्शा
आपको जानकर हैरानी होगी कि शहरों का नक्शा केवल सड़कों और इमारतों से नहीं बनता, बल्कि इससे कहीं ज़्यादा वह तय करता है कि किसे कहां रहने दिया जाएगा और किन्हें बाहर रखा जाएगा।
डॉ. असफ़ अली लोन, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के शोधकर्ता, कहते हैं कि आज की “अछूतता” फिज़िकल नहीं रही, बल्कि “संस्थागत अछूतता” बन चुकी है। जहां नीति-निर्माण के ज़रिए कुछ समुदायों को शहर के केंद्रों से दूर, गंदगी और कचरे के ढेर के बीच जीने के लिए मजबूर किया जाता है।
डॉ. सुष्मिता पाटी, एनएलएसआईयू बेंगलुरु में राजनीतिक विज्ञान की प्रोफेसर, कहती हैं कि ये कोई नई प्रक्रिया नहीं है। बल्कि ये एक सतत ऐतिहासिक प्रक्रिया है, जिसमें भारत के शहर “एक जाति और वर्ग विशेष के लिए” डिज़ाइन किए जाते हैं।
दिल्ली का उदाहरण: 1947 से शुरू हुआ बहिष्कार
देश के विभाजन के बाद जब दिल्ली में पुनर्वास की नीतियाँ बनाई गईं, तब अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और तथाकथित “अछूत” समुदायों के लिए कोई जगह नहीं रखी गई। CR पार्क, निजामुद्दीन और किंग्सवे कैंप जैसे इलाकों में ‘प्रिविलेज्ड’ लोगों को बसाया गया, जबकि दलितों को रेगरपुरा जैसे किनारे के क्षेत्रों में जगह दी गई – वो भी कच्चे मकानों में।
लेखिका रविंदर कौर लिखती हैं कि इन सरकारी पुनर्वास योजनाओं में ‘जाति’ शब्द कहीं दर्ज नहीं था, लेकिन पूरी योजना उसी के हिसाब से बनाई गई थी।
‘स्लम’ क्यों बनते हैं?
वहीं, जब शहरों में जाति या धर्म के आधार पर बस्तियों का निर्माण किया जाता है, तो कुछ इलाकों में मूलभूत सुविधाओं की भारी कमी होती है, जैसे की पीने का साफ पानी, सफाई, स्वास्थ्य सेवाएं और यहां तक कि राशन कार्ड भी नहीं। इन्हीं को “प्लानिंग ब्लैक होल” कहा गया है।
डॉ. लोन बताते हैं कि शहरों में घरों की कमी का बहाना अक्सर झूठा होता है। असल समस्या है असमान संसाधन वितरण जैसे ज़मीन, पानी, स्कूल, हॉस्पिटल, पार्क ये सब कुछ चंद खास लोगों को मिलता है। बाकी जनता को जैसे-तैसे गुज़ारा करना पड़ता है।
धार्मिक आधार पर भेदभाव: अहमदाबाद का उदाहरण
2020 के एक शोध में अहमदाबाद के दो इलाकों – जूहापुरा (मुस्लिम बहुल) और योगेश्वर नगर (हिंदू बहुल) की तुलना की गई। नतीजे चौंकाने वाले थे: जूहापुरा में नाले भरे हुए, सड़कें टूटी हुई और पानी असुरक्षित था।
यही पैटर्न अन्य शहरों में भी पाया गया – चाहे वो भोपाल हो, मुंबई या दिल्ली।
रेंटल मार्केट में भेदभाव और ‘अच्छे परिवार’ की परिभाषा
शहरों में रहने के लिए मकान खोजना भी आसान नहीं, खासकर उनके लिए जो दलित, मुस्लिम, आदिवासी या सिंगल हैं।
इंतिखाब असलम (35), जो नोएडा में एक बेहतर घर तलाश रहे थे, बताते हैं कि एक बुजुर्ग मकान मालिक उन्हें देखकर खुश थे, लेकिन जैसे ही उन्हें पता चला कि वे ‘पंजाबी’ या ‘कश्मीरी’ नहीं हैं, और एक मुसलमान हैं, तो उनका चेहरा उतर गया।
सुष्मिता पाटी बताती हैं कि “रेंटल हाउसिंग मार्केट में भेदभाव इतना गहरा है कि दलित, मुसलमान, या अकेली महिलाएं मकान पाने के लिए झूठ तक बोलने को मजबूर हो जाती हैं।”
क्या है हल?
मॉडल टेनेंसी एक्ट में हाल ही में कुछ बदलाव किए गए हैं जैसे बिना कारण किरायेदार को निकालना मुश्किल हुआ है और लिखित एग्रीमेंट अनिवार्य किया गया है। मगर भेदभाव पर कोई ठोस रोक अब भी नहीं है।
डॉ. सुष्मिता कहती हैं कि हमें ऐसे कानूनों की ज़रूरत है जो किरायेदारों के अधिकारों को जाति, धर्म, वर्ग या लिंग से ऊपर रखकर सुरक्षित करें।
डॉ. असफ़ सुझाव देते हैं कि कानून बनाने की प्रक्रिया “ऊपर से नीचे” नहीं, बल्कि “नीचे से ऊपर” होनी चाहिए ताकि जो लोग हाशिए पर हैं, उनकी असल ज़िंदगी की मुश्किलें भी कानून में दिखें।
नौकरी और करियर में जाति का साया
हालांकि, जाति की दीवारें सिर्फ घर तक सीमित नहीं हैं। 2023 में Oxfam India और News Laundry की रिपोर्ट बताती है कि मीडिया सेक्टर में लगभग 90% नेतृत्व की भूमिकाएं उच्च जाति के लोगों के पास हैं। SC/ST समुदाय के लोग इस स्तर तक पहुंच नहीं पाते। यही हाल टेक, बैंकिंग और कानूनी क्षेत्रों का भी है।
IM Bangalore की एक स्टडी में यह भी दिखा कि एक जैसी जाति वाले फर्म्स का मर्जर (विलय) ज्यादा सफल रहता है, जबकि विभिन्न जातियों के बीच मर्जर के वित्तीय परिणाम कमतर होते हैं। मतलब ये कि हायरिंग और प्रमोशन में जाति का खेल गुप्त तरीके से चलता रहता है।
ऐसे में 2025 में बेंगलुरु के दलित ट्रेनी पायलट शरण कुमार का अनुभव भी चौंकाने वाला है, जिन्होंने इंडिगो में जातिगत भेदभाव का सामना किया। ऑफिस में उन्हें अपमानित किया गया, सैलरी कटौती की गई और उन्हें नौकरी छोड़ने के लिए मजबूर किया गया। हालांकि उन्होंने शिकायत दर्ज करवाई, पर कंपनी ने अभी तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं की।
प्लानिंग से लेकर पॉलिसी तक, भेदभाव ही नीति
अब एक और चौंकाने वाली बात सुनिए, 1930 के दशक में न्यूयॉर्क के मेयर रॉबर्ट मोसेस ने जानबूझकर पुलों की ऊंचाई कम कर दी, ताकि बसें (जो गरीबों की सवारी थीं) उस रास्ते से न जा सकें। यह योजना इस मकसद से बनी थी कि उस एरिया को अमीरों के लिए आरक्षित रखा जाए।
भारत में भी कई शहरों की योजनाएं ठीक इसी तर्ज पर बनती हैं।
जमील ग़ज़ाला, जो शहरी विभाजन पर शोध करती हैं, कहती हैं कि सरकारें लोगों की कमाई और श्रम को महत्व देती हैं, पर उनके “जीवन की जरूरतों” को नहीं।
शादी और डेटिंग में जाति की सच्चाई
आपको जानकारी हैरानी होगी कि आज के डिजिटल युग में जहां ऑनलाइन डेटिंग और मैट्रिमोनियल साइट्स युवाओं के बीच लोकप्रिय हैं, वहां भी जाति का साया बरकरार है। 2021 के एक रिसर्च के मुताबिक, शादी.com पर लगभग 60% उपयोगकर्ता जाति आधारित फिल्टर लगाते हैं। यानि ज्यादातर लोग अपनी जाति के अंदर ही शादी करना चाहते हैं।
यह समस्या सिर्फ शादी तक सीमित नहीं है। डेटिंग ऐप्स जैसे टिंडर और बंबल पर भी दलित महिलाओं को गॉस्टिंग और रिजेक्शन का सामना करना पड़ता है, खासकर जब उनके प्रोफाइल में ‘अंबेडकर राइट’ या ‘बहुजन’ जैसे शब्द होते हैं।
एक नहीं, कई शहर हैं हमारे बीच
शहर अब सिर्फ भौगोलिक रूप से नहीं, बल्कि सामाजिक रूप से भी टुकड़ों में बंट चुके हैं एक शहर अमीरों का है, एक शहर गरीबों का, एक दलितों का, और एक मुसलमानों का।
इन अलग-अलग शहरों की सच्चाई तब तक नहीं बदलेगी, जब तक हमारी सोच, योजनाएं और कानून सभी इंसानों के लिए एक जैसे न हों।
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