Dakshayani Velayudhan: सोचिए एक ऐसा वक्त जब किसी लड़की का स्कूल जाना गुनाह था, उसका ऊपरी वस्त्र पहनना बगावत मानी जाती थी, और उसका बोलना… बस बर्दाश्त से बाहर। अब सोचिए, उसी दौर में एक लड़की न सिर्फ पढ़ी, बल्कि देश की संविधान सभा तक पहुंच गई। उसने संसद में खड़े होकर वो कहा, जो उस दौर में कहने की हिम्मत शायद ही किसी ने की हो।
दक्षिणायनी वेलायुधन ये वो नाम है जो आज भी किताबों में कम है, लेकिन इतिहास की हर उस पंक्ति में ज़िंदा है, जहां बराबरी, सम्मान और इंसानियत की बात होती है। वह सिर्फ भारत की पहली दलित महिला ग्रेजुएट नहीं थीं, वो एक चलती-फिरती क्रांति थीं।
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जात-पांत, भेदभाव और बेड़ियों से भरे उस वक्त में उन्होंने जो किया, वो किसी आंदोलन से कम नहीं था। उनकी कहानी न सिर्फ प्रेरणा देती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि कभी-कभी विद्रोह भी खूबसूरत होता है जब वो न्याय के लिए हो।
चलिए जानते हैं उस नायिका की कहानी, जिसे इतिहास में भले कम लिखा गया हो, लेकिन जिसने इतिहास को गहराई से बदल दिया।
एक विद्रोही जन्म- Dakshayani Velayudhan
4 जुलाई 1912 को केरल के कोच्चि के पास एक छोटे से द्वीप मुलावुकड में जन्मी दक्षिणायनी वेलायुधन का जीवन बेहद कठिन दौर में शुरू हुआ। वे पुलाया समुदाय से थीं, जो कि समाज के सबसे निचले पायदान पर गिना जाता था। उस वक्त केरल में जाति व्यवस्था इतनी सख्त थी कि पुलाया महिलाओं को ना तो सड़क पर चलने की छूट थी, ना ही सार्वजनिक कुओं से पानी भरने की। उन्हें ऊपरी वस्त्र पहनने तक की इजाजत नहीं थी केवल मोतियों का हार पहनना चलता था। अगर कोई ऊंची जाति का व्यक्ति सामने आ जाए, तो झुक कर रास्ता देना पड़ता था, और बाहर निकलने से पहले ज़ोर से आवाज़ लगानी पड़ती थी कि कोई ‘छू न ले’।
लेकिन दक्षिणायनी की कहानी यहीं से बदलनी शुरू हो गई थी। जहां उस समय दलित लड़कियों के नाम आमतौर पर ‘काली’, ‘चक्की’ जैसे रखे जाते थे, वहीं उनके माता-पिता ने उनका नाम रखा ‘दक्षिणायनी’, जो देवी दुर्गा से जुड़ा है। यानी विद्रोह और आत्म-सम्मान की भावना उनके नाम से ही शुरू हो गई थी।
स्कूल यूनिफॉर्म में इतिहास रचने वाली लड़की
दक्षिणायनी अपने समुदाय की पहली लड़की बनीं जिन्होंने स्कूली यूनिफॉर्म में ऊपर का वस्त्र पहना। यह कोई मामूली बात नहीं थी, बल्कि उस वक्त के सामाजिक ढांचे के खिलाफ एक सीधा विरोध था। पढ़ाई के दौरान उन्हें कई बार भेदभाव झेलना पड़ा। जब वह रसायन विज्ञान की पढ़ाई कर रही थीं, तो उन्हें लैब में प्रयोग नहीं करने दिया जाता था। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।
बैकवाटर सम्मेलन: विद्रोह की नींव
1913 में जब दक्षिणायनी छोटी थीं, तब उनके समुदाय ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ एक अनोखा विरोध किया जिसे बैकवाटर सम्मेलन कहा जाता है। जातिगत प्रतिबंधों की वजह से ज़मीन पर सभा नहीं कर सकते थे, तो उन्होंने नावों पर सभा की, कोचीन के बैकवाटर में। इस सभा का नेतृत्व समाज सुधारक पंडित करुप्पन ने किया था, और दक्षिणायनी का परिवार भी इसमें शामिल था। यह वह क्षण था, जिसने दक्षिणायनी के भीतर आग पैदा की।
संविधान सभा की सबसे युवा महिला
1946 में दक्षिणायनी को संविधान सभा की सदस्य चुना गया और वह न सिर्फ दलित समुदाय की पहली महिला प्रतिनिधि बनीं, बल्कि सबसे युवा महिला सदस्य (32 वर्ष की उम्र में) भी रहीं।
संविधान सभा में उनके साथ कुल 14 और महिलाएं थीं सुचेता कृपलानी, सरोजिनी नायडू, राजकुमारी अमृत कौर जैसी नामी महिलाएं, लेकिन दक्षिणायनी अलग थीं वह दलित समाज की आवाज थीं। उन्होंने संविधान के मसौदे की भी आलोचना की थी। उन्होंने कहा था कि यह मसौदा भारत सरकार अधिनियम 1935 की “प्रतिकृति” जैसा है, और इसमें लोकतंत्र और विकेंद्रीकरण की भावना गायब है।
गांधी और अंबेडकर से असहमत होकर भी प्रेरित रहीं
उन्होंने गांधी और अंबेडकर दोनों की नीतियों से कुछ हद तक असहमति जताई थी, लेकिन दोनों की प्रेरणा बनी रहीं। उन्होंने हमेशा कहा कि दलितों को ‘हरिजन’ या किसी और नाम से बुला देने से उनका दर्द कम नहीं होगा। उन्हें सम्मान, सुरक्षा, समान अवसर और न्याय चाहिए।
एक अनोखी शादी और प्रेरणादायक जोड़ी
1940 में उन्होंने आर. वेलायुधन से शादी की यह विवाह महात्मा गांधी और कस्तूरबा गांधी की मौजूदगी में हुआ। इस शादी में एक कुष्ठ रोगी ने पुजारी का काम किया था, ताकि समाज को संदेश दिया जा सके कि बीमारी और जाति के नाम पर भेदभाव बंद हो। यह जोड़ी भारत की पहली दलित सांसद जोड़ी बनी।
आर. वेलायुधन वामपंथ की ओर चले गए, लेकिन दक्षिणायनी ने कांग्रेस में रहकर अपने मिशन को जारी रखा। संसद में वह ज्यादा प्रश्न पूछने वाली महिलाओं में गिनी जाती थीं, और वे मुद्दों पर बोलने में कभी पीछे नहीं रहीं।
सक्रिय राजनीति से आगे का सफर
राजनीति से हटने के बाद भी उन्होंने अपने सपने नहीं छोड़े। उन्होंने “महिला जागृति परिषद” नाम से एक संगठन शुरू किया, जो झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली महिलाओं के साथ काम करता था।
20 जुलाई 1978 को उनका निधन हुआ। लेकिन जब वे गईं, तब तक वे अपने समाज के लिए आत्म-सम्मान, बराबरी और न्याय की लड़ाई के कई कांटे साफ कर चुकी थीं।
आज की जरूरत फिर वही
महिला अधिकार कार्यकर्ता सहबा हुसैन द्वारा किए गए एक साक्षात्कार में, उनकी बेटी मीरा वेलायुधन कहती हैं कि लोग उनकी मां को सिर्फ संविधान सभा की सदस्य के तौर पर याद करते हैं, लेकिन उनकी असली ताकत न्याय की गहरी समझ थी।
आज संविधान लागू हुए 73 साल से ज्यादा हो चुके हैं, लेकिन क्या हम सच में कह सकते हैं कि दक्षिणायनी का सपना पूरा हो गया? देश में दलित आज भी भेदभाव का सामना कर रहे हैं। समाज के बड़े हिस्से को अभी भी गरिमा, सम्मान और बराबरी के लिए लड़ना पड़ रहा है।
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