Dalai Lama Reincarnation Process: दुनिया में विभिन्न धर्मों में अपने आध्यात्मिक गुरु या नेता को चुनने की प्रक्रिया भले ही अलग-अलग हो, लेकिन तिब्बत के सर्वोच्च बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा का चयन सबसे अनोखा और रहस्यमय माना जाता है। यह कोई चुनाव या परीक्षा नहीं होती, बल्कि यह एक आध्यात्मिक खोज है, जो विश्वास और परंपरा का अद्भुत संगम है। तिब्बती लोगों का मानना है कि दलाई लामा कभी मरते नहीं, बल्कि वे केवल शरीर छोड़कर पुनर्जन्म लेते हैं। इसीलिए उनका चयन ‘चुनाव’ नहीं बल्कि ‘खोज’ कहलाता है। आइए जानते हैं इस अनोखी परंपरा और चुनौतियों के बारे में।
दलाई लामा का अर्थ- Dalai Lama Reincarnation Process
दलाई लामा तिब्बती बौद्ध धर्म के प्रमुख धार्मिक गुरु हैं और दगे-लुग्स-पा (Gelukpa या Yellow Hat) संप्रदाय के आध्यात्मिक नेता माने जाते हैं। 1959 से पहले वे तिब्बत के आध्यात्मिक और सांसारिक शासक भी थे। वर्तमान में 14वें दलाई लामा, तेनज़िन ग्यात्सो, भारत में निर्वासन में रह रहे हैं और विश्वभर में शांति और सहिष्णुता के संदेशवाहक के रूप में विख्यात हैं। ‘दलाई’ शब्द तिब्बती “लामा” (गुरु या नेता) और मंगोलियन “ताले” (महासागर) का संयोजन है, जो 16वीं सदी में इस पद के लिए इस्तेमाल होना शुरू हुआ।
तिब्बती बौद्ध धर्म में लामाओं की भूमिका
तिब्बती बौद्ध धर्म में लामाओं को रहस्यमय और गूढ़ ज्ञान के शिक्षक माना जाता है। वज्रयान बौद्ध धर्म के भारत से तिब्बत तक आने के साथ यह परंपरा विकसित हुई। तिब्बती बौद्ध धर्म का इतिहास दो मुख्य चरणों में फैला है—पहली बार बौद्ध धर्म चीन और नेपाल से तिब्बत में आया था, जहां इसे राजा स्रोंग-ब्रत्सन-सम्पो (605–660 ईस्वी) ने स्थापित किया। बाद में 9वीं सदी में बौद्ध धर्म कमजोर पड़ा, लेकिन 10वीं सदी के मध्य से दूसरी बार पुनर्जीवित हुआ।
वज्रयान बौद्ध धर्म में एक आवश्यक पहलू था अभिषेक (आध्यात्मिक दीक्षा), जो योग्य गुरु या लामा से मिलता था। इसी कारण विभिन्न संप्रदायों का विकास हुआ—न्यिंगमा, साक्या, कग्यु और जेलुकपा मुख्य हैं। कग्यु संप्रदाय ने 13वीं सदी में पुनर्जन्म के आधार पर धार्मिक नेतृत्व की परंपरा शुरू की, जिसे अन्य संप्रदायों ने भी अपनाया। जेलुकपा ने इस रीति को दलाई लामाओं के लिए स्थापित किया।
दलाई लामाओं का इतिहास
पहला दलाई लामा, गे-दुन-ग्रुब-पा (1391–1474), ताशिल्हुनपो मठ के संस्थापक और प्रमुख थे। उनकी मौत के बाद उन्हें करुणामयी बोधिसत्व अवलोकितेश्वर का अवतार माना गया। उनके उत्तराधिकारी, गे-दुन-रग्य-मत्शो (1475–1542), ड्रेपुंग मठ के प्रमुख बने।
तीसरे दलाई लामा, सोनाम ग्यात्सो (1543–1588), को मंगोल सरदार अल्तन खान ने “दलाई” उपाधि से नवाजा, जिसका अर्थ ‘महासागर’ है और यह बुद्धि और ज्ञान की गहराई का प्रतीक माना गया। यह उपाधि उनके पूर्वजों को भी दी गई। चौथे दलाई लामा, योन्टन ग्यात्सो, अल्तन खान के महान-पौत्र थे और वे तिब्बत के बाहर जन्मे एकमात्र दलाई लामा थे।
पाँचवे दलाई लामा, न्गाग-दबांग-ब्लो-बजांग-ग्यात्सो (1617–1682), ने मंगोलियाई खौशुट सेना की मदद से जेलुकपा संप्रदाय की तिब्बत में राजनीतिक सत्ता को स्थापित किया। इसी काल में पोताला महल का निर्माण हुआ, जो दलाई लामाओं का आधिकारिक निवास बना।
छठे दलाई लामा, त्सांगडब्यांग-ग्यात्सो (1683–1706), अपनी जीवनशैली और कविताओं के लिए विख्यात थे, लेकिन मंगोलों द्वारा पद से हटाए गए और चीन ले जाए गए, जहां उनकी मृत्यु हुई।
सातवें से बारहवें दलाई लामाओं के शासनकाल में तिब्बत पर मांचू और चीनी साम्राज्य का प्रभाव रहा। तेरहवें दलाई लामा, थुब्बस्तान ग्यात्सो (1876–1933), ने तिब्बती स्वाधीनता को मजबूत किया और किंगडम की रक्षा की।
14वें दलाई लामा: तेनज़िन ग्यात्सो
14वें दलाई लामा का जन्म 1935 में चीन के किंगहाई प्रांत के आमदो क्षेत्र में हुआ। उन्हें 1937 में तेरहवें दलाई लामा का पुनर्जन्म माना गया और 1940 में उनका राज्याभिषेक हुआ। 1950 में उन्होंने आधिकारिक तौर पर तिब्बत का नेतृत्व संभाला। 1959 में तिब्बती विद्रोह के बाद वे भारत शरण लिए और यहां धर्मशाला में निर्वासन सरकार स्थापित की।
उनका विश्वव्यापी सम्मान उनके अहिंसात्मक और शांति के संदेश के कारण बढ़ा। 1989 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया। वे विश्वभर में शांति, सहिष्णुता, धार्मिक सह-अस्तित्व और करुणा पर प्रवचन देते रहे हैं।
21वीं सदी की शुरुआत में उन्होंने संकेत दिया कि उनका उत्तराधिकारी पारंपरिक पुनर्जन्म प्रक्रिया के बजाय उनकी स्वयं की नियुक्ति से हो सकता है, लेकिन यह विचार चीन सरकार द्वारा अस्वीकार कर दिया गया, जिसने कहा कि दलाई लामा की परंपरा के तहत पुनर्जन्म के चयन में उनका नियंत्रण आवश्यक है। 2011 में 14वें दलाई लामा ने निर्वासित तिब्बती सरकार के प्रमुख पद से इस्तीफा दे दिया।
दलाई लामा की खोज कैसे होती है?
तिब्बत में दलाई लामा की खोज का सिलसिला सदियों पुराना है। यह मान्यता है कि दलाई लामा कभी पूरी तरह मरते नहीं, बल्कि पुनर्जन्म लेते हैं। उनके अंतिम संस्कार के समय चिता से उठने वाला धुआं एक संकेत होता है, जिसे ध्यान में रखते हुए उच्च पदस्थ लामाओं का दल खोज अभियान शुरू करता है।
यह दल दलाई लामा के निकटतम सहयोगियों से प्राप्त संकेतों, उनके अंतिम समय के वक्तव्य, और उनके आध्यात्मिक अनुभवों को ध्यान में रखकर पुनर्जन्म के स्थान की पहचान करता है। कभी-कभी यह प्रक्रिया वर्षों तक चलती है।
भविष्यवाणियां और परीक्षाएं
खोज दल अनेक आध्यात्मिक संकेतों, भविष्यवाणियों और दलाई लामा के अपने लेखन और सूक्तियों का अध्ययन करता है। जब उन्हें ऐसा कोई बच्चा मिलता है जो इन संकेतों से मेल खाता है, तो उसे तिब्बती प्रशासन को सूचित किया जाता है। अक्सर कई बच्चे मिलते हैं, इसलिए उन्हें कई परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है।
इस परीक्षा में बच्चे को दलाई लामा के व्यक्तिगत वस्त्र, वस्तुएं और स्मृतियां दिखाई जाती हैं। यदि बच्चा उन्हें पहचानता है और उसके पूर्वजन्म की याददाश्त सिद्ध हो जाती है, तभी उसे दलाई लामा का पुनर्जन्म माना जाता है। इसके बाद उस बच्चे को बौद्ध धर्म की गहन शिक्षा दी जाती है और वह आध्यात्मिक गुरु बनने की तैयारी करता है।
चीन का हस्तक्षेप और राजनीतिक विवाद
1951 में चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जा के बाद से ही दलाई लामा और चीनी सरकार के बीच संघर्ष चलता आ रहा है। 1959 में दलाई लामा भारत शरण लिए और तब से वे चीन की तिब्बती संस्कृति और धार्मिक स्वतंत्रता पर हो रहे नियंत्रण की लगातार आलोचना करते रहे हैं।
चीन ने 2007 में एक कानून बनाया जिसमें उसने अगले दलाई लामा के चयन में अपनी भूमिका तय करने का दावा किया। चीन का मकसद तिब्बत की सांस्कृतिक पहचान को खत्म करना और दलाई लामा के प्रभाव को सीमित करना है। इसलिए वह नए दलाई लामा की खोज की परंपरागत प्रक्रिया में दखलअंदाजी करना चाहता है।
इस राजनीतिक विवाद के कारण दलाई लामा का पुनर्जन्म और उनकी आध्यात्मिक विरासत का भविष्य अनिश्चितता के घेरे में है। तिब्बती समुदाय और विश्व भर के बौद्ध धर्मावलंबी इस प्रक्रिया की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए चिंतित हैं।