जब दलित होने के कारण बाबा साहेब को रामनवमी के रथ में हाथ नहीं लगाने दिया गया

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अंबेडकर और रामनवमी रथयात्रा – एक दलित परिवार में जन्मे डॉ. भीमराव अम्बेडकर को दलितों का मसीहा माना जाता है. उन्होंने अपने जीवन के हर पढ़ाव में जातिवाद भेदभाव का सामना किया है. जिसके चलते उन्होंने अपने जीवन में दलितों को उनका हक दिलाने के लिए बहुत सी लड़ाईयां लड़ी है. जो इतिहास में दर्ज हो गयी है. आज हम बात करेंगे, एक ऐसी ऐतिहासिक घटना की जब डॉ. अम्बेडकर जी ने हिन्दू धर्म के भीतर दलितों से भेदभाव और शोषण के ख़िलाफ़ आवाज उठाई. इस लड़ाई का मकसद था दलितों का मंदिर में प्रवेश करवाना. जिसके चलते डॉ. अम्बेडकर जी ने एक सत्याग्रह किया और अपने समर्थकों के साथ दलितों को उनका अधिकार दिलाने निकल गया. आईये आज हम आपके अपने इस लेख से इस पूरी घटना का वर्णन करते है.

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दलितों के मंदिर में प्रवेश के लिए बाबा साहेब का सत्याग्रह

यह उस दौर की बात है जब भारत में अंग्रेजो का राज था. कांग्रेस अग्रेजो से लड़ रही थी और दूसरी तरफ बाबा साहेब अम्बेडकर हिन्दू धर्म में दलितों से भेदभाव और शोषण के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे. अम्बेडकर जी हिन्दू धर्म के ब्राह्मणों के विशेषाधिकार के खिलाफ थे. उनका संघर्ष ब्राह्मणों से था क्यों कि वह दलितों को मनुष्य होने का भी अधिकार नहीं देना चाहते थे.

डॉ. अम्बेडकर ने अपने समर्थको के साथ मिलाकर 2 मार्च 1930 को, नासिक शहर में एक ऐसा जलूस निकाला था. जैसा जलूस पहले कभी नहीं निकला था. आंबेडकर की अध्यक्षता में एक सभा का भी आयोजन किया गया था. उसी सभा में इस जलूस का फैसला लिया गया था. इस जलूस को 1 किलोमीटर, 15 हजार दलितों को साथ लेकर चलना था.

अंबेडकर और रामनवमी रथयात्रा

बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक बाबा साहेब की जीवनी पर किताब लिखने वाले लेखक धनंजय कीर बताते हैं कि श्रीराम के नारे लगाते हुए इस जलूस को निकना था. जब जलूस मंदिर के पास पहुचा, तो मंदिर के दरवाजे बंध मिले. जिसके बाद जलूस गोदावरी नदी के किनारे गया, और वहां फिर से सभा का आयोजन किया गया. उस सभा में यह निर्णय लिया गया कि मंदिर में प्रवेश दूसरे दिन करेंगे. आन्दोलनकारियों की पहली टुकड़ी में 25 महिलाएं और 125 पुरूष शामिल थे. इसके बाद पूरा महिना यह आन्दोलन चलता रहा. 9 अप्रैल 1930 को रामनवोमी का दिन था. जब मंदिर में जाने की योजना सफल नहीं हुई तो राम के रथ खीचने में ‘अछूतों को भी शामिल करने का निर्णय हुआ”. जिसके लिए अम्बेडकर अपने कार्यकर्ताओं के साथ मंदिर के पास पहुच गए.

लेकिन आंबेडकर के समर्थकों का हाथ रथ पर लगने से पहले ही सनातनी धर्म के लोग रथ को लेकर भाग गए. आंबेडकर जी ने सारी बातें बॉम्बे प्रांत के ब्रिटिश गवर्नर फ्रेडरिक साइक्सको को पत्र में लिख कर बताई थी. आंबेडकर के समर्थकों पर पत्थरबाजी भी हुई थी. जिसमे एक युवक की मौत हो गयी थी और बहुत सरे लोग जख्मी भी हुए थे.

नहीं मिला दलितों को मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार

बीबीसी के मुताबिक, धनंनजय कीर ने बाबा साहेब की जीवनी में लिखा है कि सत्याग्रह के बाद नासिक में ‘अछूतों’ और दलितों को काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा, उनके बच्चों के स्कूल बंध कर दिए गया थे और उन्हें कोई समान भी नहीं देता था . इसके बावजूद भी उन्होंने हर नहीं मानी आन्दोलन को जरी रखा गया. इस आन्दोलन के समय अम्बेडकर को गोलमेज सम्मेलन के लिए लंदन जाना पड़ा. उनकी गैर हाज़िरी में भाऊराव गायकवाड़ ने यह संघर्ष जारी रखा. यह आन्दोलन 5 साल चला. लेकिन भारत को आजादी मिलने के बाद भी दलितों को मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार नहीं मिला.

बाबा साहेब और उनके समथकों के दलितों को उनके अधिकार दिलाने के लिए जो लड़ाईयां लड़ी है वह इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुकी है. बाबा साहिब का पूरा जीवन इन्ही संघर्षो में निकल गया कभी दलितों को उनका अधिकार नहीं दिला सके.

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