Bihar and Caste: बिहार और जाति — दो शब्द नहीं, एक ज्वलंत सवाल हैं। किसी चाय की दुकान पर ये शब्द बोल दीजिए, फिर देखिए बहस कैसे भड़कती है। कोई इतिहास टटोलने लगेगा, कोई गुस्से में भर जाएगा, और कोई कहेगा — “अभी भी कुछ बदला है क्या?” लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इस बहस की जड़ें कितनी गहरी हैं। कभी जनेऊ पहनने को लेकर लाठी चली, कभी उसे तोड़ने को लेकर हुंकार उठी। और इस पूरी लड़ाई में एक वो दिन भी आया जब बिहार की माटी से निकले लोग खड़े हो गए — सिर्फ़ अपने सम्मान के लिए, अपनी पहचान के लिए।
यह कहानी है उसी लड़ाई की — जब यादवों ने जनेऊ पहनना शुरू किया और बिहार की जातीय व्यवस्था बुनियाद से हिलने लगी। यह सिर्फ़ एक धागा नहीं था, यह स्वाभिमान की गांठ थी। और जब उसे
यह कहानी है ‘जनेऊ तोड़ो आंदोलन’ की, एक ऐसे संघर्ष की जिसने सिर्फ एक धार्मिक धागे को नहीं, बल्कि सदियों पुरानी सामाजिक श्रेणियों को भी झकझोर दिया।
शुरुआत: जनेऊ पहनने की लड़ाई- Bihar and Caste
बात 1899 से शुरू होती है, जब बिहार की मानेर की गलियों से लेकर मुंगेर के गांवों तक एक नई सोच पनप रही थी। पिछड़ी जातियों में शिक्षा और सामाजिक चेतना का संचार होने लगा था। और उसी चेतना के साथ उठी मांग — “हमें भी वो सम्मान चाहिए जो अभी सिर्फ ऊंची जातियों को मिलता है।”
इस दौर में कायस्थों को भी पिछड़ा ही माना जाता था, और जब आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती ने एक कायस्थ युवक का उपनयन संस्कार कर दिया, तो जैसे तूफान खड़ा हो गया। यहीं से शुरू हुआ जनेऊ पहनने का आंदोलन, जिसे आगे बढ़ाया डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने — जो आगे चलकर देश के पहले राष्ट्रपति बने।
राजेन्द्र बाबू ने न सिर्फ अछूतोद्वार सम्मेलन की अध्यक्षता की बल्कि एक भंगी के हाथ से पानी पीकर उस दौर की जातिगत दीवारों पर करारा प्रहार किया।
फिर हुआ मानेर में विरोध
पटना के मानेर गांव के हाथीटोला में जब पिछड़ी जातियों ने जनेऊ पहनना शुरू किया तो ऊंची जातियों में गुस्सा फूट पड़ा। फणीश्वर नाथ रेणु ने अपने उपन्यास ‘मैला आंचल’ में इस आंदोलन की पृष्ठभूमि को ‘मैरीगंज’ नाम से दर्ज किया। विरोध इतना तीव्र हुआ कि कई जानें चली गईं, कई गांव जलाए गए, और एक समुदाय को फिर से दबाने की कोशिश की गई।
रास बिहारी मंडल और यादव समाज का उभार
1911 में मधेपुरा के मुरहो गांव से एक नई अलख जगी। यहां के जमींदार रास बिहारी मंडल, जो कांग्रेस के शुरुआती नेताओं में से एक थे, उन्होंने नारा दिया — “यादव भी जनेऊ पहनेंगे”।
यह आंदोलन सिर्फ धार्मिक नहीं था, यह आत्म-सम्मान की बात थी। 1913 में पटना के कंकड़बाग में गोप जातीय महासभा का भव्य आयोजन हुआ। यहां जनेऊ पहनने के साथ ही वर्मा टाइटल अपनाने का फैसला भी हुआ। बाद में यही संगठन अखिल भारतीय यादव महासभा में बदल गया।
रास बिहारी मंडल ने अंग्रेज वायसरॉय से हाथ मिलाकर प्रतीकात्मक तौर पर उस गुलामी को नकारा, जो जाति व्यवस्था के साथ भी जुड़ी थी। उन्होंने अहीर रेजिमेंट की मांग भी की, ताकि यादवों को सेना में प्रतिनिधित्व मिल सके।
लाखोचक: जब जनेऊ धारण करना युद्ध बन गया
अब आते हैं बिहार के जातीय संघर्ष के सबसे खूनी अध्याय पर — लाखोचक की घटना, जिसे इतिहास में पहली जातीय हिंसा के रूप में देखा जाता है।
साल था 1925। मुंगेर जिले के लखीसराय के पास बसे लाखोचक गांव में बड़ी संख्या में यादव समुदाय के लोग जुटे थे। मकसद था – एक साथ जनेऊ पहनकर सामाजिक बराबरी की घोषणा करना।
लेकिन इस पहल को चुनौती मानते हुए वहां के बड़े जमींदार प्रसिद्ध नारायण सिंह (भूमिहार जाति से) ने हजारों की भीड़ के साथ हमला बोल दिया। गोहारा बांधे बाभनों की भीड़, घुड़सवारों की टुकड़ी, हाथियों पर बैठे अगुवा – जैसे कोई युद्ध छिड़ गया हो।
पुलिस ने 118 राउंड फायरिंग की, कई जानें गईं। कितने मरे, इसका आज भी कोई ठोस आंकड़ा नहीं है — 8 से 80 तक की बात होती है। लेकिन इतना तय है कि उस दिन जाति के नाम पर एक पूरा समाज खून में नहा गया।
लड़ाई खत्म नहीं हुई थी, बस दिशा बदल गई
लाखोचक की घटना ने दो बातें तय कर दीं — पहली, पिछड़ी जातियां अब झुकने वाली नहीं थीं। दूसरी, सामाजिक न्याय की लड़ाई अब संगठन बनकर लड़ेगी।
इसी सिलसिले में 1930 के दशक में त्रिवेणी संघ का जन्म हुआ — एक संगठन जिसमें यादव, कुर्मी और कोइरी शामिल थे। त्रिवेणी संघ ने कांग्रेस और ऊंची जातियों के राजनीतिक वर्चस्व को चुनौती दी। यह भारतीय राजनीति में पिछड़ी जातियों की एकजुटता की पहली मिसाल बनी।
जनेऊ से जनआंदोलन तक
साल 1974 — बिहार में एक और तूफान उठा। जेपी आंदोलन के दौरान चंद्रशेखर नाम के एक युवा ने जेपी के गांव सिताब दियारा में हजारों लोगों को इकट्ठा किया। पीपल के पेड़ के नीचे खड़े हज़ारों लोगों ने अपनी जनेऊ तोड़ दी — ये ऐलान था कि अब जाति का यह प्रतीक नहीं स्वीकारा जाएगा।
यह वही चंद्रशेखर थे, जो बाद में भारत के प्रधानमंत्री बने। लेकिन उस दिन, उन्होंने एक ऐसा काम किया जिससे जाति व्यवस्था की नींव फिर हिल उठी।
जाति, प्रतीक और परिवर्तन
समाजशास्त्री एफ. जी. बेली ने इसे संस्कृतिकरण कहा — यानी जब वंचित समुदाय आर्थिक रूप से मजबूत होते हैं तो वो सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रतीक भी अपनाते हैं। और बिहार में जनेऊ इसी प्रतीक का हिस्सा बना। कभी सम्मान पाने के लिए उसे पहना गया, तो कभी जाति को नकारने के लिए उसे तोड़ा गया।
आज लाखोचक गांव में शायद ही कोई हो जो उस दिन की कहानी सुना सके। लेकिन इतिहास की किताबों में, जैसे प्रसन्न चौधरी और श्रीकांत की किताब ‘बिहार: सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम’ में, यह घटना दर्ज है। ये सिर्फ इतिहास नहीं, बिहार की अस्मिता और संघर्ष की पहचान है।
कुल मिलाकर कहें तो, बिहार में जाति सिर्फ एक पहचान नहीं, एक राजनीतिक और सामाजिक परिघटना रही है। जनेऊ, जो कभी उच्च जातियों की निशानी माना जाता था, वह कभी आत्म-सम्मान की चाबी बना और कभी विरोध की मशाल।
लाखोचक, हाथीटोला, मुरहो या सिताब दियारा — ये सिर्फ जगह नहीं, आंदोलन के प्रतीक हैं। यह इतिहास हमें बताता है कि जब लोग अपनी पहचान और सम्मान के लिए खड़े होते हैं, तो प्रतीकों से क्रांति जन्म लेती है।