Sikhism in Telangana: ना पंजाब, ना लाहौर…यह सिख पहचान दक्कन में गढ़ी गई है

Sikhism in Telangana
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Sikhism in Telangana: तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद से थोड़ी ही दूरी पर, शमशाबाद इलाके में एक छोटा-सा गांव है। वहां पहुंचने के लिए किसी बड़े साइनबोर्ड की जरूरत नहीं पड़ती। दूर से दिखती 216 फीट ऊंची संत रामानुजाचार्य की भव्य प्रतिमा जिसे ‘स्टैच्यू ऑफ इक्वैलिटी’ कहा जाता है, ही रास्ता बता देती है। यही प्रतिमा फरवरी 2022 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अनावरण की गई थी। उसी प्रतिमा की सीध में चलते हुए एक संकरी, धूल भरी सड़क है, जो हैदराबाद-बेंगलुरु हाईवे से मुड़कर इस बस्ती तक पहुंचाती है।

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कागजों में इस जगह का नाम आज भी गचुभाई थांडा दर्ज है, लेकिन यहां रहने वाले लोग इस नाम को लगभग भूल चुके हैं। वे साफ कहते हैं हम गुरु गोबिंद सिंह नगर में रहते हैं। क्योंकी यहां के करीब 90 फीसदी लोग सिख हैं।

गांव की सुबह और बदलती पहचान (Sikhism in Telangana)

गांव में कदम रखते ही माहौल कुछ अलग लगता है। करीब 500 की आबादी वाले इस गांव के ज्यादातर लोग लम्बाडा समुदाय से हैं, जो अनुसूचित जनजाति में आते हैं। दिलचस्प बात यह है कि यहां सिख धर्म अपनाने की प्रक्रिया कोई सदियों पुरानी नहीं, बल्कि पिछले करीब 20 वर्षों में हुई है। गांव में बोली जाने वाली भाषा लम्बाड़ी है, साथ में थोड़ी-बहुत हिंदी और तेलुगु भी। लेकिन पंजाबी यहां कोई नहीं बोलता।

गुरुद्वारा और आस्था की शुरुआत

गांव के एक छोर पर, खेतों से घिरा हुआ दो मंजिला गुरुद्वारा है जिसका नाम है गुरुद्वारा साहिब दशमेश दरबार। इसी के पास रहते हैं 73 वर्षीय लखविंदर सिंह, जिनका जन्म नाम खेतावत दीपला था। गांव में जितने भी लोग सिख बने, सभी ने नए नाम अपनाए। लखविंदर आज गुरुद्वारा कमेटी के अध्यक्ष हैं और जिस जमीन पर गुरुद्वारा बना है, वह उन्होंने पांच साल पहले दान दी थी।

लखविंदर कहते हैं, “सिख बनने के बाद जिंदगी में एक मकसद आया।” वह गुरुद्वारे के परिसर में एक कमरे की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, “यहीं से सब कुछ शुरू हुआ।”

उस कमरे में आज भी एक करीब दो फीट ऊंची समाधि है। लखविंदर बताते हैं कि उनके पूर्वज कभी-कभार महाराष्ट्र के नांदेड़ साहिब जाया करते थे। करीब 50 साल पहले उन्होंने गुरु गोबिंद सिंह का नाम जपते हुए एक बैल को आजाद किया था। जब उस बैल की मौत हुई, तो उसे दफनाकर एक छोटी समाधि बनाई गई। बाद में वहां गुरु नानक की तस्वीर रखकर पूजा होने लगी। 1996 में उस जगह पर छत डालकर एक छोटा मंदिर बनाया गया।

मंदिर से गुरुद्वारा तक का सफर

गांव के ही एक बुजुर्ग भगत सिंह ने इस मंदिर को गुरुद्वारे में बदलने की पहल की। ऑटो चलाने वाले भगत सिंह बताते हैं कि उन्होंने पाकिस्तान में सिखों के पवित्र स्थलों की यात्रा की और हैदराबाद के एक गुरुद्वारे में करीब पांच साल तक रहकर सिख धर्म को गहराई से समझा। भगत सिंह बताते हैं, “2001 में हमने सिख धर्मगुरुओं से सलाह ली।” उन्होंने आगे कहा कि अगर गुरुद्वारे में पूरे विधि-विधान से पूजा करनी है, तो सिख धर्म अपनाना बेहतर होगा।” इसके बाद करीब 70 लोगों ने दीक्षा ली और सिख धर्म के पांच ककार अपनाए।

आज यह संख्या 400 से ज्यादा हो चुकी है। भगत सिंह कहते हैं कि आसपास के कुछ और गांवों के लोग भी इससे प्रेरित हुए हैं।

रोजमर्रा की जिंदगी और परंपराएं

गुरु गोबिंद सिंह नगर में दिन की शुरुआत सुबह 4 बजे गुरुद्वारे से गूंजते शबद और कीर्तन से होती है। गुरुद्वारा सुबह से शाम 7:30 बजे तक खुला रहता है। पूर्णिमा और खास मौकों पर लंगर का आयोजन होता है। गुरु गोबिंद सिंह जयंती यहां हर साल 26 जनवरी को मनाई जाती है, ताकि दिसंबर में होने वाले अन्य गुरुद्वारों के कार्यक्रमों से टकराव न हो। इस मौके पर करीब 5,000 लोग जुटते हैं और पंजाब से कीर्तन करने वाले जत्थे और धर्मगुरु भी आते हैं।

गुरुद्वारे के निर्माण में देश के अलग-अलग हिस्सों से सहयोग मिला। पटना साहिब की टीम ने इसकी योजना और वास्तुकला तैयार की, नांदेड़ साहिब से निर्माण सामग्री आई और हैदराबाद के कुछ लोगों ने आर्थिक मदद की।

नई पीढ़ी की जिम्मेदारी

30 वर्षीय मोहन सिंह गांव के पहले ग्रंथी हैं। उन्होंने हैदराबाद के एक गुरुद्वारे में 13 साल तक प्रशिक्षण लिया और फिर गांव लौटे। वह गिने-चुने लोगों में हैं जो गुरमुखी पढ़ सकते हैं। मोहन कहते हैं, “हम चाहते हैं कि बच्चे भी इस रास्ते पर चलें।” खाली समय में वह बच्चों को सिख धर्म के सिद्धांत समझाते हैं। कभी-कभी दूसरे गुरुद्वारों से लोग आकर बच्चों को कीर्तन या गतका भी सिखाते हैं।

बदली हुई जीवनशैली

धर्म परिवर्तन के साथ गांव की जीवनशैली भी बदली है। यहां तंबाकू पूरी तरह प्रतिबंधित है। 20 की उम्र के धरम सिंह बताते हैं, “कोई धूम्रपान करता दिख जाए तो हम उसे समझाते हैं।” गांव में न शराब मिलती है, न ताड़ी।

इतना ही नहीं, मांसाहार भी तभी होता है जब जानवर को झटके से मारा गया हो। इसके लिए कुछ लोग खुद कसाई की जिम्मेदारी निभाते हैं।

शादी-ब्याह और सामाजिक तालमेल

छोटी आबादी होने की वजह से रिश्तों को लेकर सवाल उठता है। धरम सिंह बताते हैं कि हैदराबाद की एक बुजुर्ग सिख महिला ने दूसरे राज्यों, यहां तक कि पंजाब से भी रिश्ते ढूंढने में मदद की पेशकश की है। हालांकि गांव के बुजुर्ग मानते हैं कि अपने ही लम्बाडा समुदाय में शादी बेहतर रहती है, चाहे सामने वाला सिख हो या नहीं।

यहां आज भी कुछ परिवार ऐसे हैं जिन्होंने सिख धर्म नहीं अपनाया। केथावत राहुल बताते हैं कि पुणे से लौटने के बाद उन्हें शुरुआत में अजीब लगा, लेकिन अब सब सामान्य है और वह भी गुरुद्वारे जाते हैं। गांव में कभी सांप्रदायिक तनाव नहीं हुआ।

दक्कनी सिखों का बड़ा इतिहास

आपको बता दें, गुरु गोबिंद सिंह नगर की कहानी दक्कनी सिखों के लंबे इतिहास से जुड़ती है। करीब 300 साल पहले गुरु गोबिंद सिंह के साथ सिख दक्षिण आए। 1832 में महाराजा रणजीत सिंह ने लाहौरी फौज को निजाम की मदद के लिए भेजा। आज के दक्कनी सिखों में से करीब 90 फीसदी उसी फौज के वंशज हैं।

बारामबाला इलाके में पहला सिख रेजिमेंट ठहरा था। वहीं आज भी एक पुराना गुरुद्वारा और स्कूल है। यहां गुरु ग्रंथ साहिब की लाहौरी परंपरा की दुर्लभ प्रति भी सुरक्षित है। आज उनकी आबादी करीब 50,000 है। वे खुद को तेलंगाना का मूल निवासी मानते हैं और कहते हैं कि यह उनकी जमीन है।

पहचान की जद्दोजहद

आज दक्कनी सिख दो पहचानों के बीच खड़े हैं एक ओर निजाम से जुड़ी उनकी दक्कनी संस्कृति, दूसरी ओर पंजाब से बाहर सिख होने की चुनौती। दरअसल हैदराबाद में मुसलमान और ईसाई अल्पसंख्यकों की तुलना में सिखों की संख्या महज 1 फीसदी है।

सरकारी नौकरियों, आरक्षण और संसाधनों में उन्हें अपेक्षित हिस्सेदारी नहीं मिली। बारामबाला की 200 एकड़ जमीन, जो कभी समुदाय को दी गई थी, आज सिमटकर 65 एकड़ रह गई है।

फिर भी उम्मीद बाकी है

इन सबके बीच गुरु गोबिंद सिंह नगर जैसे गांव उम्मीद की कहानी कहते हैं। यहां धर्म ने लोगों को जोड़ा, अनुशासन दिया और पहचान का नया आधार बनाया। दूर से दिखती ‘स्टैच्यू ऑफ इक्वैलिटी’ सिर्फ एक स्मारक नहीं, बल्कि इस गांव के लिए बराबरी, सह-अस्तित्व और आत्मसम्मान का प्रतीक बन गई है।

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