जानिए कैसे हीरा डोम ने अपनी एक कविता से शुरू किया था दलित आंदोलन, लिखी थी ‘अछूत की शिकायत’

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हीरा डोम 1800 के दशक के पहले दलित कवि थे। उनकी एकमात्र प्रसिद्ध भोजपुरी कविता, “अछूत की शिकायत” प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुई थी और इसमें उस समय की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक विडंबनाओं को बहुत ही सूक्ष्मता और मार्मिकता से संबोधित किया गया था। महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ (सितंबर 1914, भाग 15, खंड 2, पृष्ठ संख्या 512-513) में प्रकाशित यह कविता है। बाबा साहब डॉ. अंबेडकर के आंदोलन से पहले ही हीरा डोम ने अपनी साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से दलित आंदोलन को आगे बढ़ाया था। जातिवाद और सामंतवाद को चुनौती देने वाली कविता ‘अछूत की शिकायत’ अपनी अलग पहचान रखती है। इस कविता की विषयवस्तु और तीखे तेवर को देखते हुए आलोचक इसे ‘हिंदी दलित साहित्य की पहली कविता’ मानते हैं।

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क्या है ‘अछूत की शिकायत’ ?

हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’ दलित लोगों के संवेदनशील विचारों को व्यक्त करती है। इस कविता का समाजशास्त्रीय महत्व बहुत गहरा है। अपनी छोटी लंबाई के बावजूद, कविता ऐसे सवाल उठाती है, जिनका जवाब उच्च जातियों के लोग या तथाकथित मुख्यधारा के लोग नहीं दे पाते। यह वास्तव में कोई शिकायत नहीं है, क्योंकि शिकायत में ही एक गुप्त आशा है कि यह सच नहीं हो सकती। इस वजह से मैं इसे एक वैध ऐतिहासिक दस्तावेज मानता हूँ। हीरा डोम की जिज्ञासा से उच्च जाति का समाज टूट जाता है।

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इस कविता का मूल पाठ यहाँ प्रस्तुत है

अछूत की शिकायत (मूल पाठ)

“हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी,

हमनी के सेहेबे से मिनती सुनाइबि।

हमनी के दुख भगवनओं न देखताबे,

हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।

पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजाँ,

बेधरम होके रंगरेज बनि जाइबि

हाय राम! धरम न छोडत बनत बाजे,

बेधरम होके कैसे मुँहवा दिखाइबि।।1।।

खम्भवा के फारि पहलाद के बँचवले जाँ,

ग्राह के मुँह से गजराज के बचवले।

धोतीं जुरजोधना कै भइआ छोरत रहै,

परगट होके तहाँ कपड़ा बढ़वले।

मरले रवनवाँ कै पलले भभिखना के,

कानी अँगुरी पै धैके पथरा उठवले।

कहँवा सुतल बाटे सुनत न वाटे अब,

डोम जानि हमनी के छुए से डेरइले।।2।।

हमनी के राति दिन मेहनत करीलेजाँ,

दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि।

ठकुरे के सुखसेत घर में सुतल बानीं,

हमनी के जोति जोति खेतिया कमाइबि।

हकिमे के लसकरि उतरल बानीं।

जेत उइओं बेगरिया में पकरल जाइबि।

मुँह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानीं,

ई कुल खबरि सरकार के सुनाइबि।।3।।

बभने के लेखे हम भिखिया न माँगवजाँ,

ठकुरे के लेखे नहिं लउरि चलाइबि।

सहुआ के लेखे नहि डाँड़ी हम मारबजाँ,

अहिरा के लेखे नहिं गइया चोराइबि।

भंटऊ के लेखे न कबित्त हम जोरबजाँ,

पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइबि।

अपने पसिनवा कै पइसा कमाइबजाँ,

घर भर मिलि जुलि बाँटि-चोंटि खाइबि।।4।।

हड़वा मसुइया कै देहियाँ है हमनी कै,

ओकारै कै देहियाँ बभनओं कै बानीं।

ओकरा कै घरे घरे पुजवा होखत बाजे,

सगरै इलकवा भइलैं जिजमानी।

हमनी के इनरा के निगिचे न जाइलेजाँ,

पाँके में से भरि-भरि पिअतानी पानी।

पनहीं से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,

हमनी के एतनी काही के हलकानी।।5।।

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दलित साहित्य में लिखे एक लेख में भोजपुरी कविता का हिंदी अनुवाद है :

1. हम दिन रात कष्ट भोग रहे हैं, हम अपनी फरियाद साहब (भगवान, साहब का मतलब ब्रिटिश सरकार भी हो सकता है) से कहेंगे। भगवान भी हमारा कष्ट नहीं देख पा रहे हैं। हम कब तक कष्ट सहेंगे? पादरी के दरबार में जाएंगे तो धर्म-भ्रष्ट होकर अंग्रेज बन जाएंगे। हे प्रभु! धर्म छोड़ना संभव नहीं है, धर्म-भ्रष्ट होकर मुंह कैसे दिखाएंगे?

2. जिन्होंने खंभा तोड़कर प्रहलाद को बचाया, मगरमच्छ के मुंह से गजराज को बचाया, दुर्योधन के भाई दुशासन द्वारा द्रौपदी का चीरहरण किए जाने पर प्रकट होकर वस्त्र बढ़ाया, रावण का वध कर विभीषण की रक्षा की तथा पर्वत को अपनी कनिष्ठा अंगुली पर उठा लिया। वह भगवान कहां सो रहे हैं, हमारी बात नहीं सुन रहे हैं, क्या हमें डोम समझकर छूने से डर रहे हैं?

3. हम दिन रात काम करते हैं और हमें सिर्फ़ 2 रुपये मिलते हैं। ठाकुर अपने घर में चैन से सो रहा है और हम उसके खेत जोत कर उसे उपजाऊ बना रहे हैं। जब हुक्मरान की फौज उतरती है तो हम वहाँ भी बेगार करने के लिए पकड़े जाते हैं। हम मुँह बाँधकर ऐसा काम कर रहे हैं, हम सरकार को पूरी खबर बता देंगे।

4. हम ब्राह्मणों की तरह भीख नहीं मांगेंगे, ठाकुरों की तरह लाठी नहीं चलाएंगे, साहू (बनिया) की तरह लाठी मारकर धोखाधड़ी नहीं करेंगे और अहीरों की तरह गाय नहीं चुराएंगे, भाटों की तरह कविताएं रचकर किसी की खुशामद नहीं करेंगे और न ही पगड़ी पहनकर अदालत जाएंगे और झूठे मुकदमे दायर करेंगे। हम अपने पसीने की कमाई से पैसा कमाएंगे और उसे पूरे परिवार में बांटेंगे।

5. हमारा शरीर भी हाड़-मांस से बना है। ब्राह्मण का शरीर भी ऐसा ही है। घर-घर में उसकी पूजा हो रही है, पूरे मोहल्ले में उसके संरक्षकों की सेवा हो रही है। हमें कुएं के पास भी नहीं जाने दिया जाता और हम कीचड़ से पानी पीते हैं। जूतों से पीट-पीटकर हमारे हाथ-पैर तोड़ दिए जाते हैं। हमें इतना कष्ट और अत्याचार क्यों झेलना पड़ रहा है?

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