जानें कौन थे राम मनोहर लोहिया जिन्होंने आज़ादी के बाद गैर-कांग्रेसवाद की अवधारणा को दिया था जन्म

Know how Ram Manohar Lohia gave birth to the concept of non-Congressism
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समाजवादी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया अक्सर कहा करते थे कि सच्चे लोकतंत्र की जीवनीशक्ति सरकारों के उलट-पलट में बसती है। कांग्रेस के प्रभुत्व के उन दिनों में ‘असंभव’ माने जाने वाले इस उलट-पलट के लिए उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक कोशिश की। वहीं फरवरी, 1962 में लोकसभा के तीसरे आम चुनाव में करारी हार से ‘उलट-पलट’ के उनके अरमानों को जोर का झटका लगा, फिर भी 23 जून, 1962 को नैनीताल में अपने ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने कार्यकर्ताओं को ‘निराशा के कर्तव्यों’ के बारे में बताया और उन्हें उस पर अमल करने के लिए कहा। आजादी के बाद देश की राजनीति में गैर-कांग्रेसवाद की अवधारणा को जन्म देने वाले डॉ. राम मनोहर लोहिया ही थे। अपनी नीतियों और विचारों की ‘तत्काल अस्वीकार्यता’ का सामना करने के बावजूद, उन्हें आने वाले समय में अपनी सार्वजनिक स्वीकृति पर पूरा भरोसा था। उनका यह कथन कि ‘लोग मेरी बात सुनेंगे, लेकिन मेरे मरने के बाद’ इसी बात का प्रतिबिंब था। आइए आपको बताते हैं डॉ राम मनोहर लोहिया के बारे में विस्तार से।

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कौन थे राम मनोहर लोहिया

राम मनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को उत्तर प्रदेश के अकबरपुर में एक व्यवसायी परिवार में हुआ था। उनका पालन-पोषण उनके दादा-दादी ने किया। जब वे 2 वर्ष के थे, तब उनकी माँ का निधन हो गया। उनके पिता श्री हीरालाल ने दूसरी शादी करने से इनकार कर दिया। वे दिल से सच्चे देशभक्त थे। अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए, 11 वर्ष की आयु में वे महात्मा गांधी के नेतृत्व वाले असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। लोहिया ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से अपनी इंटरमीडिएट की शिक्षा पूरी की। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और बाद में बर्लिन के हम्बोल्ट विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की, जहाँ उन्होंने अर्थशास्त्र और राजनीति का अध्ययन किया।

राम मनोहर लोहिया का स्वतंत्रता संग्राम

1934 में, लोहिया कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वामपंथी विंग के रूप में कार्य करती थी। वे पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे और उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पत्रिका का संपादन भी किया। 1936 में, वे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के विदेश विभाग के सचिव बने।

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, जब महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू सहित सभी वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था, तब लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने समर्थन जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

द हिंदू की एक रिपोर्ट के अनुसार, “लोहिया ने बंबई और कलकत्ता में ‘कांग्रेस रेडियो’ नामक भूमिगत रेडियो स्टेशन शुरू किए, ताकि “नेतृत्वहीन आंदोलन का समर्थन किया जा सके और जनता को आवश्यक जानकारी दी जा सके।” जेपी ने ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता का मुकाबला करने के लिए एक गुरिल्ला संगठन की स्थापना की। परिणामस्वरूप, लोहिया को 1944 और 1946 में फिर से जेल में डाल दिया गया।

स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक सफर

लोहिया और कई अन्य कांग्रेस नेताओं ने 1948 में नेहरू के साथ विवाद के कारण पार्टी छोड़ दी। मेनस्ट्रीम की एक रिपोर्ट के अनुसार, लोहिया ने दावा किया कि नेहरू ने समाजवाद के बारे में बहुत बातें कीं, लेकिन वास्तव में इसे लागू नहीं किया। वे 1952 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए और कुछ समय तक महासचिव के रूप में कार्य किया। वे 1955 में पार्टी से अलग हो गए। बाद में उन्होंने एक नई सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की और मासिक पत्रिका मैनकाइंड का संपादन किया। लोहिया ने सामाजिक अन्याय के खिलाफ कई सत्याग्रह आयोजित किए और कई बार जेल गए।

मई 1963 में, लोहिया फर्रुखाबाद से उपचुनाव में तीसरी लोकसभा के लिए चुने गए। यह लोहिया ही थे जिन्होंने संसद में खेतिहर मजदूरों के बीच भुखमरी की व्यापक समस्या को उजागर किया। 1964 के बजट बहस में लोहिया ने कहा कि 27 करोड़ भारतीय तीन आने या 19 पैसे प्रतिदिन पर जीवन यापन करते हैं।

समाज सुधारक बने लोहिया

लोहिया का मानना ​​था कि जब तक जातिगत असमानता समाप्त नहीं हो जाती, भारत का विकास नहीं हो सकता। उन्होंने जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिए कई तरीके सुझाए, जिसमें सरकारी कर्मियों के लिए अंतरजातीय विवाह की अनिवार्यता और सांप्रदायिक समारोह आयोजित करना शामिल था। जातिगत असमानता से निपटने के लिए उन्होंने अक्सर ‘रोटी और बेटी’ वाक्यांश का इस्तेमाल किया। उन्होंने लोगों से एक-दूसरे के घर खाना खाने और अपने बेटे-बेटियों की शादी अलग-अलग जातियों में करके जातिगत भेदभाव को दूर करने का आग्रह किया।

12 अक्टूबर 1967 को विलिंग्डन अस्पताल, नई दिल्ली में उनकी मृत्यु हो गई, जो अब राम मनोहर लोहिया अस्पताल के नाम से जाना जाता है।

जहां तक ​​समाजवादी पार्टी का सवाल है, तो करीब ढाई दशक पहले अपनी स्थापना के बाद से ही वह लगातार डॉ. लोहिया की राजनीतिक विरासत की सबसे बड़ी दावेदार बनी हुई है। लोहिया ने अगली पीढ़ी के नेताओं के लिए समाजवादी विचारधारा की विरासत छोड़ी। समाजवादी विचारधारा के प्रमुख नेताओं में मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव आदि शामिल हैं।

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