Sanyasi in Sikhism: सिख धर्म, जिसकी स्थापना गुरु नानक देव जी ने 15वीं सदी में की थी, आज विश्व के प्रमुख और प्रभावशाली धर्मों में से एक है। यह धर्म एकेश्वरवाद, समानता, और सेवा के सिद्धांतों पर आधारित है। गुरु नानक ने एक ऐसे समाज की कल्पना की, जहाँ जाति, धर्म या लिंग के आधार पर कोई भेदभाव न हो और हर व्यक्ति आध्यात्मिकता को गृहस्थ जीवन जीते हुए भी प्राप्त कर सके।
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कई बार यह सवाल उठता है कि क्या सिख धर्म में सन्यास या साधु-संतों की परंपरा है, जैसी सनातन धर्म में देखी जाती है? इस प्रश्न का उत्तर सिख धर्म के मूल दर्शन, इतिहास और आचार प्रणाली को समझे बिना देना अधूरा होगा।
सिख धर्म का मूल दृष्टिकोण– Sanyasi in Sikhism
गुरु नानक देव जी ने अपने समय की धार्मिक कट्टरता और सामाजिक असमानता का विरोध करते हुए एक ऐसा मार्ग सुझाया, जिसमें ईश्वर की भक्ति, परिश्रम, और सच्ची कमाई को प्रमुख स्थान मिला। उन्होंने “नाम जपो, किरत करो, और वंड छको” की सीख दी। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि ईश्वर तक पहुंचने के लिए जंगलों में तपस्या या समाज से कटकर रहने की आवश्यकता नहीं, बल्कि इंसान को गृहस्थ जीवन जीते हुए भक्ति करनी चाहिए।
सन्यास नहीं, सेवा और संतुलन की शिक्षा
जहां सनातन धर्म में सन्यास आश्रम जीवन का अंतिम चरण माना गया है, वहीं सिख धर्म में ऐसे किसी औपचारिक ‘सन्यास’ की व्यवस्था नहीं है। सिख विचारधारा में ‘मीरी-पीरी’ का सिद्धांत बहुत महत्वपूर्ण है, जिसका मतलब है भौतिक (राजनैतिक/सामाजिक) और आध्यात्मिक जिम्मेदारियों का संतुलन।
गुरु नानक देव जी ने स्वयं परिवार सहित जीवन व्यतीत किया, और उनके बाद के सभी गुरु भी गृहस्थ जीवन के समर्थक रहे। सिख धर्म में व्यक्ति को समाज के बीच रहते हुए ही धार्मिक जीवन जीने की प्रेरणा दी जाती है।
खालसा पंथ: सैनिक-संत की अवधारणा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 में खालसा पंथ की स्थापना की, जो सिख धर्म की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम था। खालसा का अर्थ है शुद्ध और निर्भय। खालसा सिखों को न केवल धर्मनिष्ठ और भक्त बनना था, बल्कि अत्याचार और अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने वाला सैनिक-संत भी बनना था।
खालसा पंथ के अनुयायियों के लिए पांच ककार—केश, कंघा, कड़ा, कच्छा और कृपाण—आवश्यक माने गए। ये न केवल उनकी पहचान हैं, बल्कि उनके अनुशासन, आत्मबल और धर्म के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक भी हैं।
संत-परंपरा का सम्मान, लेकिन सन्यास नहीं
सिख धर्म में हालांकि ‘सन्यास’ की परंपरा नहीं है, लेकिन संतों और भक्त कवियों की वाणी को विशेष स्थान दिया गया है। गुरु ग्रंथ साहिब, जो सिखों का सबसे पवित्र ग्रंथ है, उसमें न केवल सिख गुरुओं की वाणी है, बल्कि 15 भक्ति आंदोलन से जुड़े संतों की वाणी भी शामिल की गई है।
इनमें संत कबीर, रविदास, नामदेव, और शेख फरीद जैसे महान संत शामिल हैं, जो भले ही अन्य पंथों से संबंधित थे, लेकिन उनके विचार सिख धर्म के मूल सिद्धांतों से मेल खाते थे। इन संतों की रचनाएं समानता, मानवता और एकेश्वरवाद पर आधारित थीं।
गुरु अर्जुन देव जी ने जब आदि ग्रंथ का संकलन किया, तब उन्होंने इन संतों की वाणी को भी उसमें स्थान देकर यह सिद्ध कर दिया कि सिख धर्म समावेश और उदारता की मिसाल है।
आधुनिक सिख समाज में ‘संत’ की भूमिका
आज के समय में भी सिख समाज में कई लोग ‘संत’ या ‘बाबा’ के रूप में जाने जाते हैं। ये लोग समाज के बीच रहते हुए धार्मिक उपदेश, सत्संग, सेवा कार्य और सामाजिक upliftment के कार्य करते हैं। लेकिन इनका जीवन सन्यासियों जैसा एकांतवासी या सांसारिक त्याग से पूर्ण नहीं होता।
ये संत गुरु ग्रंथ साहिब की शिक्षाओं पर आधारित जीवन जीते हैं और समाज को भक्ति, सेवा और समानता के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। कुछ लोग इन्हें सनातन धर्म के साधु-संतों से जोड़ते हैं, लेकिन इनकी भूमिका और उद्देश्य दोनों भिन्न हैं।
सेवा, भक्ति और समाज के बीच संतुलन ही सिख धर्म का सार
सिख धर्म का मूल संदेश है कि ईश्वर को पाने के लिए संसार छोड़ने की आवश्यकता नहीं, बल्कि संसार में रहते हुए भी ईश्वर की भक्ति, सेवा और ईमानदारी के साथ जीवन जीया जा सकता है। सिख धर्म सन्यास की नहीं, बल्कि कर्तव्य, सामाजिक जिम्मेदारी और भक्ति की राह पर चलने की प्रेरणा देता है।
सिखों के संत, उनके विचार और उनकी जीवनशैली भले ही कुछ रूपों में साधु-संतों जैसी दिखे, पर वे सन्यास नहीं बल्कि गृहस्थ धर्म में रहकर अध्यात्म का सच्चा उदाहरण हैं। यही सिख धर्म की विशेषता है—आध्यात्मिकता का समाज में रहकर पालन करना।
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