Sikhism in Uttarakhand: जब बात उत्तराखंड की होती है, तो ज़हन में सबसे पहले बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियाँ, बहती गंगा और चारधाम यात्रा की भीड़ नजर आती है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इसी देवभूमि में सिख धर्म की भी एक गहरी और ऐतिहासिक जड़ें बसी हैं?
उत्तराखंड सिर्फ हिंदू तीर्थों का प्रदेश नहीं है यहां ऐसी जगहें भी हैं जहां गुरु नानक देव जी की चरण धूल पड़ी, जहां गुरु गोबिंद सिंह जी ने ध्यान लगाया और जहां आज भी उनकी आवाज़ लंगर और अरदास के रूप में गूंजती है।
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यहां के गुरुद्वारे न केवल सिख श्रद्धालुओं के लिए आस्था के केंद्र हैं, बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए भी एक सुकून भरी मंज़िल हैं, जो आध्यात्म और शांति की तलाश में है।
आइए, जानते हैं कि उत्तराखंड में सिखों की उपस्थिति कितनी है, उनका इतिहास इस भूमि से कैसे जुड़ा है और कौन-कौन से गुरुद्वारे इस विरासत को आज भी संजोए हुए हैं।
उत्तराखंड में कितने हैं सिख? Sikhism in Uttarakhand
वर्तमान जनगणना के अनुसार, उत्तराखंड में सिखों की कुल आबादी लगभग 2,36,340 है। हालांकि सिख समुदाय की संख्या राज्य की कुल जनसंख्या का छोटा हिस्सा है, लेकिन इनकी उपस्थिति विशेष रूप से ऊधम सिंह नगर, हरिद्वार, देहरादून और नैनीताल जिलों में काफ़ी मजबूत है।
इन चार जिलों को छोड़ दें तो बाकी इलाकों में सिखों की जनसंख्या में गिरावट देखने को मिली है। उदाहरण के तौर पर, ऊधम सिंह नगर में जहां राज्य के दो-तिहाई सिख रहते हैं, वहाँ उनकी जनसंख्या में 15.06% की वृद्धि दर्ज हुई है। इसके मुकाबले हिन्दू समुदाय की 32.62%, मुस्लिम की 46.33% और ईसाइयों की 56.29% वृद्धि हुई है।
उत्तराखंड और सिख इतिहास का गहरा रिश्ता
आपकी जानकारी के लिए बता दें, सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी का उत्तराखंड से विशेष लगाव रहा है। उन्होंने अपनी तीसरी उदासी (धर्म प्रचार यात्रा) के दौरान साल 1514 में करतारपुर से यात्रा शुरू कर कांगड़ा, कुल्लू और देहरादून होते हुए अल्मोड़ा, रानीखेत, नैनीताल और नानकमत्ता तक का सफर तय किया।
उनका संदेश था –
“नाम जपो, किरत करो, वंड छको”
यानी भगवान का नाम लो, मेहनत करो और जो कमाओ उसे मिल-बांट कर खाओ। यह संदेश आज भी गुरुद्वारों में चल रहे लंगर के रूप में जीवंत है, जहां हर जाति-धर्म के लोग एक साथ बैठकर भोजन करते हैं।
गुरु नानक देव जी के उत्तराखंड दौरे से जुड़ी कई प्रसिद्ध घटनाएं और चमत्कार आज भी स्थानीय गुरुद्वारों की पहचान हैं।
अब जानते हैं उत्तराखंड के प्रमुख सिख गुरुद्वारों के बारे में:
हेमकुंड साहिब (जिला चमोली)
ये गुरुद्वारा सिर्फ सिख धर्म का नहीं, बल्कि भारत का भी एक बेहद खास तीर्थ स्थल है। दुनिया का सबसे ऊंचा गुरुद्वारा, जो लगभग 15,200 फीट की ऊंचाई पर स्थित है।
यहाँ ऐसा माना जाता है कि गुरु गोबिंद सिंह जी ने 20 वर्षों तक तप किया था।
गुरुद्वारा सिर्फ 5 महीने (मई से अक्टूबर) के लिए खुलता है, क्योंकि बाक़ी समय यहाँ बर्फबारी होती है। दिलचस्प बात ये है कि इसका ज़िक्र दसम ग्रंथ में भी आता है, और कुछ मान्यताएं इसे रामायण काल से भी जोड़ती हैं। कहते हैं, लक्ष्मण जी ने भी यहां तप किया था।
गुरु राम राय दरबार साहिब, देहरादून
देहरादून के बीचोंबीच स्थित यह दरबार साहिब इतिहास, संस्कृति और कला का बेहतरीन मेल है। बाबा राम राय जी द्वारा बनवाए गए इस गुरुद्वारे में सिख और इस्लामी आर्किटेक्चर का अनोखा संगम देखने को मिलता है।
गुरुद्वारे की दीवारों पर बनी भित्ति चित्र और जटिल नक्काशी इस जगह को सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि कलात्मक रूप से भी खास बनाते हैं। यह सालभर खुला रहता है, और यहां पहुंचना बेहद आसान है क्योंकि देहरादून में रेलवे और एयरपोर्ट दोनों ही मौजूद हैं।
नानकमत्ता साहिब: योगियों से संवाद की जगह
ऊधम सिंह नगर जिले का यह गुरुद्वारा उस ऐतिहासिक पल की याद दिलाता है जब गुरु नानक देव जी ने यहां आकर योगियों से संवाद किया था। इस जगह का पुराना नाम गोरखमत्ता था, लेकिन गुरु नानक देव जी के आगमन के बाद इसे नानकमत्ता साहिब कहा जाने लगा।
यहां का पीपल साहिब, दूध का कुआं और बावली साहिब आज भी उस समय की यादें समेटे हुए हैं। एक मान्यता के अनुसार, गुरु नानक देव जी के प्रभाव से यहां का सूखा पीपल का पेड़ भी हरा हो गया था।
रीठा साहिब: जब कड़वा फल मीठा हो गया
पिथौरागढ़ के इस गुरुद्वारे से जुड़ी एक बहुत ही दिलचस्प कथा है। कहते हैं कि जब गुरु नानक देव जी अपने शिष्य भाई मरदाना के साथ यहां पहुंचे और मरदाना ने भूख की शिकायत की, तो गुरुजी ने उन्हें रीठा का फल खाने को कहा। रीठा जो आमतौर पर कड़वा होता है, गुरुजी की कृपा से मीठा हो गया। आज भी इस गुरुद्वारे में प्रसाद के रूप में मीठा रीठा बांटा जाता है।
यह जगह बैसाखी के मौके पर लगने वाले मेले के लिए भी मशहूर है और अक्टूबर से मई के बीच यहां आने का सबसे अच्छा समय होता है।
इसलिए उत्तराखंड के ये गुरुद्वारे सिर्फ धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि वो संस्कृति, एकता, और सेवा के जीवंत प्रतीक हैं। यहां का हर गुरुद्वारा एक कहानी कहता है कभी तपस्या की, कभी चमत्कार की, कभी सेवा की। और इन कहानियों में छुपा है वो अनुभव, जो किसी किताब में नहीं, सिर्फ यहां आकर ही महसूस किया जा सकता है।