Who is Ramdas Athawale: रामदास आठवले का नाम आते ही देश में दलित राजनीति का एक मजबूत चेहरा आंखों के सामने उभरता है। एक नेता जो न केवल संसद में दलितों की आवाज़ बुलंद करता है, बल्कि ज़मीन पर उनके हक के लिए लगातार संघर्ष करता रहा है। लेकिन 2015 में उन्होंने एक ऐसा बयान दिया जिसने पूरे देश में बहस छेड़ दी। उन्होंने कहा – “अगर सरकार दलितों को सुरक्षा नहीं दे सकती, तो उन्हें आत्मरक्षा के लिए बंदूकें लेने की इजाज़त दी जाए!”
यह कोई आवेश में दिया गया बयान नहीं था। इसके पीछे बरसों से दबाए जा रहे एक समुदाय का दर्द, अपमान और सुरक्षा की लड़ाई थी।
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शुरुआत: एक समाजसेवी से लेकर केंद्रीय मंत्री तक का सफर- Who is Ramdas Athawale
रामदास बंडु आठवले की बात करें तो उनका जन्म 25 दिसंबर 1959 को महाराष्ट्र के सांगली ज़िले के अगलगांव गांव में हुआ था। एक साधारण परिवार से आने वाले रामदास ने पत्रकारिता और सामाजिक कार्यों के जरिये अपना करियर शुरू किया। ‘भूमिका’ नामक साप्ताहिक पत्रिका के संपादक के रूप में उन्होंने समाज की नब्ज़ को नज़दीक से समझा। वे न सिर्फ एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता रहे, बल्कि उन्होंने बौद्ध धर्म और बाबासाहेब अंबेडकर की विचारधारा को अपने जीवन का मूल बना लिया।
रामदास आठवले ने कई मराठी फिल्मों में अभिनय भी किया, लेकिन उनका असली मंच राजनीति थी। 1974 में दलित पैंथर आंदोलन से जुड़कर वे समाजिक बदलाव के लिए संघर्ष की राह पर निकल पड़े।
राजनीति में मजबूत उपस्थिति
महाराष्ट्र विधान परिषद से लेकर लोकसभा और फिर राज्यसभा, रामदास आठवले का राजनीतिक सफर लगातार आगे बढ़ता गया। 1990 से 1995 तक वे महाराष्ट्र सरकार में समाज कल्याण और परिवहन मंत्री रहे। इसके बाद वे 1998 से 2009 तक लोकसभा सांसद रहे और फिर 2014 में राज्यसभा पहुंचे। 2016 से वे केंद्र में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय में राज्य मंत्री के पद पर कार्यरत हैं।
उनकी पार्टी आरपीआई (ए) आज एनडीए की सहयोगी है, लेकिन आठवले की पहचान हमेशा एक स्वतंत्र और मुखर नेता की रही है।
2015: जब उन्होंने कहा – “दलितों को हथियार दो”
2015 में हरियाणा के फरीदाबाद के सुनपेड़ गांव में दलित परिवार के दो बच्चों को जिंदा जला देने की दिल दहला देने वाली घटना ने देश को झकझोर दिया। उस वक्त रामदास आठवले ने कहा कि अगर सरकार और पुलिस दलितों को सुरक्षा नहीं दे सकती, तो उन्हें आत्मरक्षा के लिए हथियार रखने की अनुमति दी जाए।
उनका कहना था कि दलितों पर अत्याचार न तो यूपीए सरकार में थमा था, और न ही एनडीए सरकार में रुक रहा है। ऐसे में आत्मरक्षा के लिए हथियार ही एकमात्र रास्ता बचता है।
उन्होंने तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से इस मुद्दे पर बात करने की बात भी कही। उनके इस बयान ने पूरे देश में एक नई बहस को जन्म दे दिया कि क्या दलितों को अपनी सुरक्षा के लिए हथियारों की ज़रूरत है?
वीके सिंह के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया
रामदास आठवले ने उस समय के केंद्रीय मंत्री और पूर्व सेनाध्यक्ष वीके सिंह के बयान पर भी नाराज़गी जताई। सिंह ने कहा था – “हर घटना के लिए सरकार जिम्मेदार नहीं होती, कोई कुत्ते को पत्थर मार दे तो क्या सरकार दोषी है?”
आठवले ने इस तुलना को शर्मनाक बताते हुए कहा कि यह एक बेहद दुर्भाग्यपूर्ण बयान है और दलितों का अपमान है।
बाबासाहेब अंबेडकर और ‘तीन बल’ की बात
रामदास आठवले की सोच अंबेडकरवादी है। बाबा साहेब ने कहा था कि दलितों के पास तीन में से कोई भी बल – न जनबल, न धनबल और न ही मनोबल – नहीं है। उन्होंने कहा था कि जब तक समाज के पास ‘शक्ति’ नहीं होती, तब तक सम्मान की बात करना बेमानी है।
दलितों को सदियों से न सिर्फ शारीरिक रूप से दबाया गया है, बल्कि उनका मानसिक बल भी तोड़ा गया है। उन्हें हथियारों से वंचित रखा गया, जिससे उनका आत्मविश्वास भी छीन लिया गया।
रामदास आठवले का ‘हथियार’ वाला बयान इसी सोच का नतीजा था कि जब सरकार दलितों को सुरक्षा नहीं दे पा रही है, तो उन्हें खुद सक्षम बनाया जाए।
भोपाल घोषणा और हथियारों की सामाजिक विविधता
2002 में भोपाल में हुए एक सम्मेलन में भी यही मांग उठी थी कि दलितों को आत्मरक्षा के लिए हथियारों के लाइसेंस दिए जाएं, और दलित महिलाओं को हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाए।
कागजों पर बराबरी, लेकिन ज़मीन पर फासला
कहने को तो दलितों को भी दूसरों की तरह हथियारों का लाइसेंस लेने का पूरा हक है, लेकिन असल में ये अधिकार आसानी से हाथ नहीं आता। लाइसेंस के लिए जो शर्तें होती हैं, वो आम दलितों के लिए भारी पड़ती हैं। वही पुराना खेल नियम सबके लिए बराबर, लेकिन फायदा सिर्फ ताकतवर तबकों को।
लाइसेंस में नहीं, पहुंच में फर्क है
भारत में हर 100 लोगों पर केवल 4.3 बंदूकें हैं। सोचिए, अमेरिका में यह आंकड़ा 112.7 है! पाकिस्तान तक में 12 बंदूकें हैं हर 100 लोगों पर। अगर भारत की कुल आबादी में SC/ST का 22.5% हिस्सा है, तो फिर बंदूकों की हिस्सेदारी में भी उतनी जगह क्यों नहीं है? यह सवाल उठाना अब जरूरी हो गया है।
बस्ती में 2-3 बंदूकें भी बदल सकती हैं तस्वीर
वहीं, दलितों पर जब भी कोई हमला होता है, उसका शिकार केवल एक व्यक्ति नहीं, पूरी बस्ती होती है। अगर ऐसी बस्तियों में सिर्फ दो-तीन लाइसेंसी बंदूकें भी हों, तो उत्पीड़कों के हौसले पस्त हो सकते हैं। बंदूकें सिर्फ रक्षा नहीं करेंगी, बल्कि डर का संतुलन भी कायम करेंगी।
केवल सुरक्षा नहीं, यह आत्मसम्मान का मामला है
जब किसी समाज को हथियार लेने, रखने और बेचने का मौका नहीं मिलता, तो धीरे-धीरे वह खुद को सत्ता से बाहर महसूस करने लगता है। इसलिए हथियारों की दुकानों और लाइसेंस के बंटवारे में डाइवर्सिटी का मतलब केवल सुरक्षा नहीं, बल्कि आत्मगौरव और आत्मनिर्भरता भी है।
दुकानों के नाम से झलकता है प्रभुत्व का खेल
दिल्ली और लखनऊ जैसी जगहों की गन शॉप्स पर एक नजर डालिए मोहनलाल एंड कंपनी, पंडित आर्म्स स्टोर, सिंह गन हाउस, शुक्ला गन हाउस… ये सब नाम एक ही तबके को रिप्रेजेंट करते हैं। दलित सरनेम जैसे दुसाध, जाटव, मुर्मुर कहीं नजर नहीं आते। अगर ये नाम भी दिखने लगें, तो इसका असर सिर्फ कागजों तक नहीं रहेगा, समाज के मनोबल पर सीधा असर पड़ेगा।
हथियार नहीं, सुरक्षा की मांग
हालांकि, रामदास आठवले का मकसद हिंसा को बढ़ावा देना नहीं था, बल्कि वो यह दिखाना चाहते थे कि अगर समाज के एक तबके को बार-बार निशाना बनाया जा रहा है, तो उसे अपनी रक्षा का अधिकार मिलना ही चाहिए।
उनका यह बयान आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना 2015 में था। दलितों की सुरक्षा केवल बयानबाज़ी से नहीं होगी, उसके लिए ठोस नीति, कानून और ज़रूरत हो तो आत्मरक्षा का प्रशिक्षण देना होगा।
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