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दिवाली के दिन असरानी का निधन, बिना किसी को बताए हुआ अंतिम संस्कार; अब Annu Kapoor ने ...

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Annu Kapoor: 20 अक्टूबर को दिवाली के मौके पर बॉलीवुड के दिग्गज अभिनेता असरानी का निधन हो गया। उनके मैनेजर बाबूभाई थिबा ने दैनिक भास्कर से बातचीत में बताया कि असरानी ने अपनी आखिरी इच्छा के तौर पर कहा था कि उनकी मौत की खबर किसी को न दी जाए। इसी वजह से दोपहर में उनके गुजर जाने के तुरंत बाद बिना किसी को जानकारी दिए उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।

परिवार के सिर्फ 15 से 20 लोग ही इस मौके पर मौजूद थे। इंडस्ट्री से किसी को खबर नहीं दी गई, जिससे कोई फिल्मी हस्ती वहां शामिल नहीं हो पाई। असरानी चाहते थे कि उनकी विदाई पूरी सादगी और शांति के साथ हो, बिना किसी भीड़ या चर्चा के।

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असरानी की आखिरी इच्छा – “मेरी मौत पर कोई हंगामा न हो” Annu Kapoor

असरानी के मैनेजर ने बताया कि एक्टर ने यह इच्छा अपनी पत्नी मंजू बंसल के सामने जाहिर की थी। उन्होंने कहा था, “मेरी मौत के बाद कोई शोर-शराबा न हो, जब अंतिम संस्कार हो जाए तभी सबको बताना।”
परिवार ने उनकी इस बात का पूरा सम्मान किया और दिवाली की दोपहर में ही शांतिपूर्वक उनका अंतिम संस्कार किया गया। असरानी की यह सादगी भरी विदाई उनके शांत स्वभाव और जीवन के प्रति सरल सोच को दर्शाती है।

अन्नू कपूर बोले – “दुनिया एक होटल है, चेक-आउट तो करना ही होगा”

असरानी के निधन के बाद अब वरिष्ठ अभिनेता अन्नू कपूर ने भी अपनी अंतिम इच्छा को लेकर बयान दिया है। उन्होंने एएनआई से बातचीत में कहा कि जब उनका “इस दुनिया नामक होटल से चेक-आउट करने का समय आए”, तो उनका अंतिम संस्कार भी गुप्त रूप से किया जाए।

अन्नू कपूर ने कहा, “अगर मेरा निधन किसी राष्ट्रीय पर्व या त्यौहार जैसे 15 अगस्त, 26 जनवरी, दिवाली, होली, ईद, मकर संक्रांति, क्रिसमस, या गुरु पूर्णिमा के दिन हो, तो किसी को तकलीफ न दी जाए। मेरा संस्कार शांति से, बिना किसी को बताए किया जाए।”

 “किसी पर बोझ बनकर नहीं जीना चाहता”

अन्नू कपूर ने अपनी बात को गहराई से समझाते हुए कहा, “मैं किसी पर बोझ नहीं बनना चाहता। न अपने परिवार पर, न समाज पर, न देश पर। गालिब का एक शेर है—‘ग़म-ए-हस्ती का असद किससे हो जुज़ मर्ग इलाज।’ यानी इस जीवन के ग़म का इलाज सिर्फ मृत्यु है। जब तक जिंदा हैं, जलना तो है, लेकिन कोशिश यही करनी चाहिए कि किसी को अपनी वजह से तकलीफ न पहुंचे।”

उन्होंने आगे कहा, “जब मेरा समय आए, तो चुपचाप चेक-आउट कर जाऊं। ये दुनिया एक मुसाफ़िरखाना है, कोई स्थायी ठिकाना नहीं। बड़े-बड़े लोग इसे अपना परमानेंट रेजिडेंस नहीं बना पाए, तो हम कैसे बना सकते हैं? इसलिए बेहतर यही है कि विदाई सादगी से हो, बिना किसी शोर-शराबे के।”

असरानी की सादगी बनी मिसाल

असरानी के निधन की खबर जब दो दिन बाद सामने आई, तब फिल्म इंडस्ट्री के कई सितारे स्तब्ध रह गए। सोशल मीडिया पर सभी ने उन्हें श्रद्धांजलि दी और उनकी उस इच्छा का सम्मान किया, जो उन्होंने जीवन के अंतिम दिनों में जताई थी।

असरानी ने अपने लंबे फिल्मी करियर में दर्शकों को हंसाया, मनोरंजन किया और यादगार किरदार दिए। लेकिन अपने आखिरी सफर में उन्होंने दिखा दिया कि असल जिंदगी में भी वे उतने ही सादे और शांत स्वभाव के थे, जितने परदे पर।

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अमेरिका का नया ट्रंप कार्ड: S Paul Kapur की नियुक्ति से पाकिस्तान को बड़ा झटका, भारत ...

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S Paul Kapur: अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अखाड़े में हाल ही में ऐसा दांव चला है जिसने दक्षिण एशिया के समीकरण बदल दिए हैं। अमेरिका ने दक्षिण एवं मध्य एशिया के लिए भारतीय मूल के अमेरिकी प्रोफेसर एस पॉल कपूर (S. Paul Kapur) को नया दूत नियुक्त किया है और इसी के साथ पाकिस्तान को एक और झटका देते हुए नई AMRAAM मिसाइलें बेचने से साफ इंकार कर दिया है।

दोनों फैसलों ने पाकिस्तान की नींद उड़ा दी है, जबकि भारत के लिए ये कदम एक सकारात्मक संकेत माने जा रहे हैं। यूएस सीनेट ने कपूर की नियुक्ति को मंजूरी दे दी है और वह अब इस महत्वपूर्ण पद पर डोनाल्ड लू की जगह लेंगे। दिलचस्प बात यह है कि कपूर, जो अब ट्रंप प्रशासन के अधिकारी होंगे, भारत में जन्मे हैं और पाकिस्तान के आतंकवाद के मुखर आलोचक के रूप में उनकी पहचान है।

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कपूर की नजर में पाकिस्तान की भूमिका- S Paul Kapur 

एस पॉल कपूर का नाम भारत के लिए किसी नए चेहरे की तरह भले लगे, लेकिन वह अंतरराष्ट्रीय रणनीति और सुरक्षा के क्षेत्र में पहले से एक मजबूत थिंक टैंक के रूप में जाने जाते हैं। कपूर ने कई बार कहा है कि पाकिस्तान आतंकियों को भारत के खिलाफ एक “प्रॉक्सी” हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है, और यही उसकी स्थायी नीति रही है।

अपनी चर्चित किताब ‘Jihad as Grand Strategy: Islamist Militancy, National Security and the Pakistani State’ में कपूर लिखते हैं कि 1947 में पाकिस्तान की स्थापना के बाद से ही वह इस्लामी आतंकवादियों के सहारे अपनी सुरक्षा नीति को आगे बढ़ाने की कोशिश करता रहा है। उनका मानना है कि पाकिस्तान की यह रणनीति अस्थिरता नहीं, बल्कि एक सोची-समझी सरकारी नीति है जिसके ज़रिए वह भारत को चुनौती देता है वो भी बहुत कम लागत में।

कौन हैं एस पॉल कपूर?

दिल्ली में जन्मे कपूर भारतीय पिता और अमेरिकी मां के बेटे हैं। अमेरिका में पढ़ाई करने के बाद उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो से राजनीतिक विज्ञान और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में पीएचडी की। आज वह यूएस नेवल पोस्टग्रेजुएट स्कूल (कैलिफोर्निया) में राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों के प्रोफेसर हैं और स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के हूवर इंस्टीट्यूशन से विजिटिंग फेलो भी हैं।

कपूर ने अमेरिकी रक्षा विभाग के यूएस-इंडिया स्ट्रेटेजिक डायलॉग में भी योगदान दिया है। वह अपनी नियुक्ति की पुष्टि सुनवाई के दौरान यूएस सीनेट से यह कहते हुए जुड़े कि “मुझे नहीं पता था कि मेरा करियर एक दिन मुझे वहीं ले जाएगा, जहां मेरा जन्म हुआ था।”

एक लेखक और रणनीतिक चिंतक

एस पॉल कपूर सिर्फ एक कूटनीतिज्ञ नहीं, बल्कि एक लेखक और विचारक भी हैं। उनकी किताबें जैसे

  • Dangerous Deterrent: Nuclear Weapons, Proliferation and Conflict in South Asia,
  • India, Pakistan and the Bomb,
  • और The Challenges of Nuclear Security: US and Indian Perspectives
    दक्षिण एशिया की परमाणु राजनीति और भारत-पाकिस्तान संबंधों पर गहरी दृष्टि प्रस्तुत करती हैं।

उनके विचारों में एक खास बात ये है कि वे भारत को क्षेत्रीय स्थिरता का स्तंभ मानते हैं, जबकि पाकिस्तान को आतंकवाद और अस्थिरता का जनक बताते हैं।

‘आंशिक सहयोगी’ पाकिस्तान

कपूर ने Observer Research Foundation (ORF) के लिए 2023 में लिखे एक लेख में भी पाकिस्तान की आलोचना करते हुए कहा कि “आतंक के खिलाफ युद्ध में पाकिस्तान सिर्फ एक ‘आंशिक सहयोगी’ है।”
उन्होंने यह भी लिखा कि भले ही हाफिज सईद जैसे आतंकी नेताओं को गिरफ्तार किया गया हो, लेकिन लश्कर-ए-तैयबा के कई वरिष्ठ सदस्य आज भी पाकिस्तान में खुलेआम घूम रहे हैं।

भारत को लेकर सकारात्मक दृष्टिकोण

जहां पाकिस्तान को लेकर कपूर का रुख सख्त है, वहीं भारत के प्रति उनका दृष्टिकोण हमेशा सकारात्मक और व्यावहारिक रहा है। उन्होंने कई मौकों पर कहा कि अमेरिका और भारत की साझेदारी हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के लिए बेहद ज़रूरी है।
हूवर इंस्टीट्यूशन के एक लेख में उन्होंने लिखा था —
“अमेरिका–भारत की रणनीतिक साझेदारी में एक स्वाभाविक गुण है। हिंद-प्रशांत को मुक्त और खुला रखना, चीन के उभार का संतुलन बनाना, और आर्थिक सहयोग बढ़ाना — यही वो तत्व हैं जो दोनों देशों को करीब लाते हैं।”

भारत के लिए सकारात्मक, पाकिस्तान के लिए चुनौती

कपूर की नियुक्ति के साथ अमेरिका ने यह संकेत दिया है कि आने वाले समय में दक्षिण एशिया में आतंकवाद और क्षेत्रीय स्थिरता के मुद्दे पर सख्त रुख अपनाया जाएगा। यह भारत के हित में है, क्योंकि वह लंबे समय से पाकिस्तान की आतंक नीति के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने में लगा है।

वहीं, पाकिस्तान के लिए यह फैसला एक और झटका है पहले AMRAAM मिसाइल सौदे से इनकार और अब एक ऐसे अधिकारी की नियुक्ति जो खुले तौर पर उसकी नीतियों की आलोचना करता है।

संक्षेप में कहें तो, एस पॉल कपूर की एंट्री सिर्फ एक कूटनीतिक बदलाव नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया की राजनीति में एक नया अध्याय है जहां भारत और अमेरिका के रिश्ते और मजबूत होंगे, और पाकिस्तान पर दबाव और बढ़ेगा।

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Danapur Assembly Election 2025: लालू की सीट पर लालटेन की लौ बरकरार रहेगी या फिर कमल फ...

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Danapur Assembly Election 2025: पटना से सटी हुई दानापुर विधानसभा सीट पर 2025 का चुनावी माहौल अब पूरी तरह गर्म हो चुका है। बिहार की राजनीति में इस सीट का अपना अलग ही महत्व है, क्योंकि यही वह जगह है, जहाँ से लालू प्रसाद यादव ने 1995 में जीत दर्ज कर मुख्यमंत्री बनने की राह बनाई थी। तब से अब तक यह सीट कई राजनीतिक उतार-चढ़ावों की गवाह बन चुकी है, कभी भाजपा का गढ़ रही दानापुर अब राजद (RJD) के नियंत्रण में है। लेकिन 2025 का मुकाबला फिर वही पुराना सवाल लेकर आ रहा है  क्या लालटेन फिर जलेगी या कमल फिर खिलेगा?

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2020 में हुआ बड़ा उलटफेर- Danapur Assembly Election 2025

2020 के दानापुर विधानसभा चुनाव में आरजेडी के रितलाल यादव ने भाजपा की दिग्गज उम्मीदवार आशा देवी को कड़ी टक्कर देते हुए हराया था। रितलाल यादव को 89,895 वोट मिले, जबकि आशा देवी को 73,971 वोट। जीत का अंतर 15,924 वोटों का रहा। यह नतीजा इसलिए खास था क्योंकि भाजपा लंबे समय से इस सीट पर मजबूत स्थिति में थी, और यह हार उसके गढ़ को हिला देने वाली साबित हुई।

रितलाल यादव की प्रोफाइल भी हमेशा चर्चा में रहती है — वे 12वीं पास हैं, उन पर 14 आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं, लेकिन इसके बावजूद वे इलाके में मजबूत पकड़ रखते हैं। उनकी कुल संपत्ति करीब 12 करोड़ रुपए आंकी गई है और दिलचस्प बात यह है कि उन पर कोई देनदारी नहीं है।

आशा देवी का दौर: तीन बार की विजेता

2015 के चुनाव में भाजपा की आशा देवी ने लगातार तीसरी बार जीत दर्ज की थी। उन्हें 66,983 वोट मिले, जबकि आरजेडी के राजकिशोर यादव को 61,774 वोट। जीत का अंतर केवल 5,209 वोटों का था मतलब मुकाबला बेहद कांटे का रहा।

इससे पहले 2010 के चुनाव में आशा देवी ने पहली बार जीत दर्ज की थी, जब उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार रितलाल राय को हराया था। उस वक्त आशा देवी को 59,423 वोट, जबकि रितलाल राय को 41,506 वोट मिले थे। यह जीत लगभग 17,917 वोटों के अंतर से हुई थी।

तीन चुनावों तक लगातार जीतकर आशा देवी ने दानापुर को भाजपा का मजबूत किला बना दिया था, लेकिन 2020 में यह किला आखिरकार ढह गया।

दानापुर की राजनीतिक यात्रा

दानापुर सीट बिहार की राजनीति में हमेशा से अहम रही है।

  • 1995: लालू प्रसाद यादव ने यहां से जीतकर मुख्यमंत्री बनने की राह खोली।
  • 2000: लालू ने दोबारा जीत हासिल की।
  • 2002 उपचुनाव: आरजेडी के रामानंद यादव ने जीत दर्ज की।
  • इसके बाद भाजपा ने इस सीट पर कब्जा जमाया और आशा देवी तीन बार विजयी रहीं।
  • 2020: रितलाल यादव ने भाजपा के गढ़ को तोड़कर लालटेन फिर जला दी।

जातीय समीकरण बना रहेगा निर्णायक फैक्टर

दानापुर की राजनीति का सबसे बड़ा फैक्टर जातीय समीकरण है।
यहाँ यादव और वैश्य मतदाता मिलकर यह तय करते हैं कि सत्ता किसके हाथ में जाएगी। यादव समुदाय परंपरागत रूप से आरजेडी का मजबूत वोट बैंक है, जबकि वैश्य वर्ग भाजपा की ओर झुकाव रखता है।

इसके अलावा ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, कुर्मी, मुस्लिम, पासवान और रविदास समुदाय भी इस चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
माना जा रहा है कि अगर भाजपा वैश्य मतदाताओं को एकजुट करने में सफल रही तो मुकाबला बराबरी का हो सकता है, लेकिन अगर यादव वोटर आरजेडी के साथ एकजुट रहे, तो रितलाल यादव की राह फिर आसान दिखती है।

2025 का बड़ा सवाल

अब सबसे बड़ा सवाल यही है क्या रितलाल यादव एक बार फिर लालटेन की रोशनी से दानापुर को जगमगाएंगे, या भाजपा कोई नया चेहरा लाकर अपनी खोई जमीन वापस पाएगी?

चुनावी माहौल में अभी से चर्चाएं तेज़ हैं, और इलाके के नुक्कड़ों पर यही बात सबसे ज़्यादा सुनाई देती है
“इस बार कमल खिलेगा कि लालटेन जलेगी?”

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India Most Expensive Lawyers: भारत के सबसे महंगे वकील, एक सुनवाई की फीस लाखों में, जा...

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India Most Expensive Lawyers: भारत की अदालतों में कई ऐसे वकील हैं जिनकी सिर्फ मौजूदगी से केस का रुख बदल जाता है। ये वकील ना सिर्फ अपनी लीगल नॉलेज और कोर्ट में धारदार दलीलों के लिए जाने जाते हैं, बल्कि उनकी फीस भी आम लोगों की सोच से कहीं ज्यादा होती है। हाई-प्रोफाइल मामलों में इनकी डिमांड सबसे ज्यादा होती है और ये हर सुनवाई के लिए लाखों रुपये चार्ज करते हैं।

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हरीश साल्वे: एक सुनवाई के लिए 25 लाख रुपये तक- India Most Expensive Lawyers

देश के टॉप वकीलों की लिस्ट में सबसे ऊपर नाम आता है हरीश साल्वे का। उन्हें भारत का सबसे महंगा वकील माना जाता है। साल्वे ने कई हाई-प्रोफाइल केस लड़े हैं जैसे अंतरराष्ट्रीय कोर्ट में कुलभूषण जाधव केस या सुप्रीम कोर्ट में सबरीमाला मंदिर केस। उनकी कानूनी रणनीति और मजबूत पकड़ के चलते ही वो हर सुनवाई के लिए 10 लाख से 25 लाख रुपये तक लेते हैं। कुछ मामलों में ये फीस इससे भी ज्यादा हो सकती है।

फाली एस नरीमन: 60 साल से ज्यादा का अनुभव

फाली एस नरीमन भारत के सबसे सम्मानित और वरिष्ठ वकीलों में शुमार हैं। उन्होंने देश की संवैधानिक और सामाजिक दिशा तय करने वाले कई अहम मामलों में पक्ष रखा है। नरीमन एक सुनवाई के लिए 8 लाख से 15 लाख रुपये तक चार्ज करते हैं। हालांकि बढ़ती उम्र के चलते अब वे कम मामलों को हाथ में लेते हैं, लेकिन उनकी लीगल सलाह आज भी बेहद कीमती मानी जाती है।

अभिषेक मनु सिंघवी: राजनीति और कानून का मिश्रण

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और अनुभवी वकील अभिषेक मनु सिंघवी भी इस लिस्ट में बड़ी जगह रखते हैं। हाल ही में उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का केस लड़ा और उन्हें जमानत दिलवाई। सिंघवी की फीस सुनवाई के हिसाब से 15 लाख से लेकर 30 लाख रुपये तक होती है। वे मुख्यतः राजनीतिक और कॉर्पोरेट मामलों में सक्रिय रहते हैं।

मुकुल रोहतगी: आर्यन खान केस से सुर्खियों में

भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल और वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी भी हाई-प्रोफाइल केसों में पहली पसंद माने जाते हैं। उन्होंने शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान का ड्रग्स केस लड़ा और जमानत दिलवाई। मुकुल रोहतगी आमतौर पर एक केस की सुनवाई के लिए 10 लाख से 20 लाख रुपये तक लेते हैं।

भारी फीस, लेकिन भरपूर भरोसा

इन वकीलों की फीस सुनकर भले ही आम आदमी चौंक जाए, लेकिन उनके क्लाइंट्स के लिए यह फीस भरोसे और विशेषज्ञता की कीमत है। जब मामला किसी की प्रतिष्ठा, राजनीतिक करियर या व्यापारिक साम्राज्य पर असर डालने वाला होता है, तो ये महंगे वकील ही उम्मीद की सबसे मजबूत डोर बनते हैं।

कहने को तो यह लाखों में खेल है, लेकिन इन वकीलों की साख और नतीजों की गारंटी उन्हें भारत के कानूनी जगत का सबसे दमदार चेहरा बना देती है।

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Post-Diwali Pollution: सांस लेने में दिक्कत? फेफड़ों की नेचुरल सफाई के लिए ये 5 ड्रिं...

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Post-Diwali Pollution: दिवाली के जश्न के बाद दिल्ली और एनसीआर की हवा एक बार फिर खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी है। हर साल की तरह इस बार भी पटाखों और धूल-धुएं ने मिलकर प्रदूषण को जहरीला बना दिया है। खासतौर पर छोटे बच्चे, बुजुर्ग और सांस या अस्थमा के मरीज़ इस समय सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। इस जहरीले माहौल में फेफड़ों की देखभाल अब एक जरूरत बन गई है। अगर आपको भी सांस लेने में दिक्कत हो रही है या हल्का सा चलने पर भी थकान महसूस होती है, तो अब वक्त है अपने लंग्स को नेचुरली डिटॉक्स करने का।

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इसके लिए किसी महंगी दवा की जरूरत नहीं है, बल्कि घर में मौजूद कुछ आम चीजों से बने आयुर्वेदिक ड्रिंक्स आपकी काफी मदद कर सकते हैं। ये ड्रिंक्स न सिर्फ आपके फेफड़ों को साफ करते हैं बल्कि इम्यून सिस्टम को भी स्ट्रॉन्ग बनाते हैं।

नींबू-शहद वाला पानी (Lemon-Honey Water)

इस ड्रिंक को आमतौर पर वेट लॉस के लिए पिया जाता है, लेकिन यह शरीर को डिटॉक्स करने में भी काफी असरदार है। नींबू शरीर से गंदगी बाहर निकालता है और शहद गले और छाती में जमा बलगम को निकालने में मदद करता है। सुबह के वक्त इसे गुनगुने पानी के साथ पिएं।

गाजर-चुकंदर का जूस (Carrot-Beetroot Juice)

गाजर और चुकंदर का जूस पीने से ब्लड सर्कुलेशन बेहतर होता है और शरीर को तुरंत एनर्जी मिलती है। इनमें मौजूद विटामिन A और C न सिर्फ त्वचा बल्कि फेफड़ों के लिए भी फायदेमंद होते हैं। ये आपके सिस्टम को अंदर से क्लीन करते हैं और थकान दूर करने में भी असरदार हैं।

अदरक-नींबू की चाय (Ginger-Lemon Tea)

अदरक और नींबू दोनों ही एंटीऑक्सीडेंट्स से भरपूर होते हैं। यह चाय शरीर से टॉक्सिन्स निकालने में कारगर मानी जाती है। नींबू का विटामिन C और अदरक का सूजन कम करने वाला गुण फेफड़ों को मजबूत करता है। सुबह खाली पेट इसका सेवन फेफड़ों की सफाई के लिए बेहद फायदेमंद होता है।

मुलेठी की चाय (Licorice Tea)

मुलेठी एक नेचुरल इम्यून बूस्टर है और इसके एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण गले की सूजन और खांसी में राहत देते हैं। मुलेठी की चाय फेफड़ों के टिशूज़ को रिपेयर करने और सांस की दिक्कतों को कम करने में भी कारगर मानी जाती है। ठंडी या धूल भरी हवा में रहने वालों के लिए ये बेहद जरूरी ड्रिंक बन जाती है।

हल्दी वाला दूध (Turmeric Milk)

हल्दी में मौजूद करक्यूमिन शरीर की सूजन को कम करता है और फेफड़ों की सफाई में मदद करता है। खासतौर पर रात को सोने से पहले हल्दी वाला दूध पीना गले की खराश, खांसी और छाती की जकड़न को आराम देता है। ये ड्रिंक इम्यूनिटी को बूस्ट करता है और संक्रमण से बचाव करता है।

फेफड़ों की सेहत के लिए सिर्फ ड्रिंक्स नहीं, लाइफस्टाइल भी जरूरी

इन सभी नेचुरल ड्रिंक्स के साथ आपको अपनी लाइफस्टाइल में भी बदलाव करने की जरूरत है। धूम्रपान से बचें, बाहर निकलते समय मास्क पहनें और कोशिश करें कि प्रदूषण वाले इलाकों में ज्यादा समय ना बिताएं। हेल्दी डाइट, भरपूर पानी और एक्सरसाइज भी आपके फेफड़ों को हेल्दी रखने में अहम भूमिका निभाते हैं।

डिस्क्लेमर: यह जानकारी सामान्य स्वास्थ्य सुझाव के तौर पर प्रदान की गई है। किसी भी आयुर्वेदिक या स्वास्थ्य संबंधित उपचार को अपनाने से पहले कृपया अपने चिकित्सक या स्वास्थ्य विशेषज्ञ से सलाह जरूर लें।

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Sikhism in Southall: जब लंदन में मिले लस्सी, लंगर और लहजे में पंजाबी – जानिए क्यों सा...

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Sikhism in Southall: अगर आप लंदन घूमने का प्लान बना रहे हैं और भारतीय संस्कृति की झलक देखना चाहते हैं, तो मैं आपको एक जगह का नाम ज़रूर बताना चाहूंगी जो की है साउथॉल। यह वेस्ट लंदन में पड़ता है, ईलिंग बरो के अंदर, और लंदन के सेंट्रल इलाके से बस सवा 17 किलोमीटर दूर है। लेकिन आप जैसे ही यहां कदम रखेंगे, आपको लगेगा कि आप कहीं दिल्ली, लुधियाना या अमृतसर जैसी किसी जगह में आ गए हैं। इसी वजह से इसे “लिटिल इंडिया” के नाम से भी पहचाना जाता है।

यह इलाका असल में भारतीयों का गढ़ बन चुका है खासकर पंजाबी सिख समुदाय का। बाजार से लेकर मंदिर और गुरुद्वारे तक, हर जगह आपको भारत जैसी ही रौनक दिखेगी।

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यहां की शुरुआत कैसे हुई? Sikhism in Southall

अब आप सोचेंगे कि लंदन में ऐसा इलाका बना कैसे? तो बात कुछ यूं है कि 1950 के आसपास कुछ भारतीय, खासकर पंजाब से लोग, यहां आकर बसे थे। एक स्थानीय फैक्ट्री में काम करने के लिए उन्हें बुलाया गया था। इसके बाद धीरे-धीरे उनके रिश्तेदार, दोस्त और जान-पहचान वाले भी आकर यहीं बसते चले गए।

Sikhism in Southall
Source: Google

हीथ्रो एयरपोर्ट यहां से पास है, तो वहां भी नौकरी के मौके थे। इससे और लोग जुड़ते चले गए और आज साउथॉल लंदन में सबसे बड़ा साउथ एशियन इलाका बन चुका है।

द ब्रॉडवे — साउथॉल की धड़कन

अब जब आप साउथॉल आएंगे, तो सबसे पहले आपको एक सड़क मिलेगी — The Broadway। ये यहां की मेन रोड है और इसे देख कर आपको लगेगा कि आप किसी इंडियन बाज़ार में आ गए हैं। रंग-बिरंगी साड़ियां, शादी के कपड़े, मिठाई की दुकानें, चाट के ठेले, पंजाबी गाने और भीड़-भाड़ से भरपूर माहौल।

यहां का बाज़ार इतना फेमस है कि फिल्म “बेंड इट लाइक बेकहम” की शूटिंग भी यहीं हुई थी। और एक पब है, नाम है “ग्लासी जंक्शन” बड़ा दिलचस्प है, क्योंकि ये यूके का पहला ऐसा पब था जहां आप इंडियन रुपये से पेमेंट कर सकते थे। आपको बता दें, फिल्म “धन धना धन गोल” की शूटिंग भी यहीं हुई थी।

अब आपको गुरुद्वारा ज़रूर दिखाना है

अगर आप सिख धर्म या पंजाबी संस्कृति से जुड़े हैं — या भले ही नहीं भी हों — तब भी मैं कहूंगी कि गुरुद्वारा श्री गुरु सिंह सभा साउथॉल जरूर देखिए। यह लंदन का सबसे बड़ा गुरुद्वारा है, और भारत के बाहर भी इसे सबसे बड़े सिख गुरुद्वारों में गिना जाता है।

यह गुरु नानक रोड और पार्क एवेन्यू के पास स्थित है। इसे 2000 में बनाना शुरू किया गया था और 2003 में खोला गया। इसकी लागत करीब £17.5 मिलियन आई थी, और पूरा पैसा स्थानीय सिखों के डोनेशन से जुटाया गया था।

गुरुद्वारे में एक साथ तीन हजार लोग बैठ सकते हैं। साथ में एक कम्युनिटी सेंटर, लाइब्रेरी, और बहुत ही सुंदर लंगर हॉल भी है। यहां पंजाबी भाषा, गुरमत और सिख इतिहास की क्लासेस भी होती हैं, बच्चों से लेकर बड़ों तक सभी के लिए।

यह भी जानना दिलचस्प होगा कि जब ये गुरुद्वारा बनकर तैयार हुआ, तो प्रिंस चार्ल्स (जो अब किंग हैं) खुद यहां आए थे।

सिर्फ पूजा ही नहीं, शिक्षा में भी आगे

गुरुद्वारा कमिटी ने Khalsa Primary School भी शुरू किया है। ये स्कूल साउथॉल के Tentelow Lane में है और इसे £2.8 मिलियन में खरीदा गया था। यहां ना सिर्फ सिख बच्चे, बल्कि दूसरे धर्मों के बच्चे भी पढ़ाई कर सकते हैं। पढ़ाई के साथ-साथ यहां बच्चों को अपनी भाषा, संस्कृति और धर्म की जानकारी भी दी जाती है।

सिर्फ सिख ही नहीं, सब हैं यहां

आपको ये जानकर अच्छा लगेगा कि साउथॉल सिर्फ सिखों तक सीमित नहीं है। यहां हर धर्म के लोग मिलजुल कर रहते हैं। 2021 के आंकड़ों के हिसाब से साउथॉल की धार्मिक आबादी कुछ यूं है:

  • सिख – 36.58%
  • हिंदू – 20.35%
  • मुस्लिम – 18.86%
  • ईसाई – 15.9%
  • अन्य या कोई धर्म नहीं – 7.69%

लेकिन यहां का माहौल, त्योहारों की रौनक और सड़कों पर दिखने वाली संस्कृति में सिख समुदाय की गूंज साफ नजर आती है। गुरुद्वारे में नियमित रूप से अमृत वेला सिमरन (सुबह की अरदास) जैसे कार्यक्रम आयोजित होते हैं जो पूरे समुदाय को एकजुट करते हैं। साथ ही, गुरुद्वारा सामाजिक मुद्दों पर भी मुखर रहता है – जैसे पगड़ी पहनने के अधिकार या युवाओं की शिक्षा।

साउथॉल आज एक ऐसा स्थान बन चुका है, जहां ब्रिटिश संस्कृति और भारतीय विरासत का सुंदर मेल देखने को मिलता है। खासकर सिख समुदाय ने इस इलाके को अपनी मेहनत, संस्कृति और सेवा भाव से एक नई पहचान दी है।

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Bihar Election 2025: महागठबंधन में दरार! सीटों की लड़ाई से बिगड़ा तालमेल, साझा प्रचार...

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Bihar Election 2025: बिहार विधानसभा चुनाव नजदीक हैं, लेकिन महागठबंधन की अंदरूनी कलह थमने का नाम नहीं ले रही। राजद, कांग्रेस, वाम दल और वीआईपी जैसे सहयोगी दलों ने एकजुटता का दावा तो किया, मगर हकीकत यह है कि एक-दूसरे के खिलाफ ही मैदान में उतर आए हैं। साझा घोषणापत्र तैयार करने की बात हो या फिर साझा प्रचार अभियान हर मोर्चे पर असहमति हावी है।

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साझा घोषणापत्र फंसा, प्रचार ठप- Bihar Election 2025

महागठबंधन की मेनिफेस्टो ड्राफ्ट कमेटी अभी तक किसी एक मत पर नहीं पहुंच सकी है। राजद और कांग्रेस के अपने-अपने चुनावी वादे हैं, और इन्हें एक साझा दस्तावेज में पिरोना टेढ़ी खीर बन गया है। यही कारण है कि अब तक साझा चुनाव प्रचार की शुरुआत तक नहीं हो पाई है। अंदरखाने से आ रही खबरों के मुताबिक कांग्रेस ने इस गतिरोध को सुलझाने के लिए अपने वरिष्ठ नेता अशोक गहलोत को पटना भेजा है, जहां वो तेजस्वी यादव से मुलाकात कर सकते हैं। कांग्रेस ने प्रदेश प्रभारी कृष्ण अल्लावारु को फिलहाल पीछे कर दिया है।

‘फ्रेंडली फाइट’ नहीं, खुली जंग

महागठबंधन के दावे चाहे जो भी हों, लेकिन जमीन पर हालात बिल्कुल अलग हैं। कई सीटों पर कांग्रेस और राजद आमने-सामने हैं। वैशाली, कहलगांव, सिकंदरा, वारसीलगंज, सुल्तानगंज और नरकटियागंज में दोनों दलों ने अपने-अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं। ये वहीं सीटें हैं जहां एनडीए को टक्कर देने के बजाय महागठबंधन खुद आपस में लड़ रहा है।

इसी तरह, कांग्रेस और सीपीआई चार सीटों बछवाड़ा, बिहार शरीफ, करगहर और राजापाकर में एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं। वहीं, राजद और वीआईपी के बीच भी दो सीटों बाबूबरही और चैनपुर पर टकराव सामने आया है।

सीट बंटवारे से बढ़ा घमासान

महागठबंधन में सीटों के बंटवारे को लेकर काफी खींचतान चली। 20 अक्टूबर को नामांकन की आखिरी तारीख से ठीक पहले तक तस्वीर साफ नहीं थी। आखिरकार, राजद ने 143, कांग्रेस ने 61, वाम दलों को 30 और वीआईपी को 9 सीटें दी गईं। लेकिन इसके बावजूद कई दलों ने तय सीमा से ज्यादा उम्मीदवार उतार दिए। उदाहरण के लिए, वीआईपी को 9 सीटें मिलीं लेकिन उसने 15 उम्मीदवार मैदान में उतार दिए। सीपीएम को 4 सीटें दी गईं लेकिन 6 उम्मीदवार खड़े किए गए।

सम्राट चौधरी का तंज

बिहार के डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी ने इस मौके को भुनाने में देर नहीं लगाई। उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि महागठबंधन में असली नेता सिर्फ लालू यादव हैं, बाकी पार्टियां बस नाम की हैं। साथ ही उन्होंने कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर चुटकी लेते हुए कहा कि “SIR वाले नेता तो अब दिखाई ही नहीं दे रहे, शायद हनीमून पीरियड में हैं।”

मतदाता हुए कन्फ्यूज

महागठबंधन की इस आपसी लड़ाई का सीधा असर मतदाताओं पर पड़ रहा है। जहां एक तरफ एनडीए ने समय रहते सीट बंटवारा और प्रचार की रणनीति तय कर ली, वहीं महागठबंधन अब तक असमंजस में है। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इस आपसी खींचतान का नुकसान गठबंधन को चुनाव नतीजों में उठाना पड़ सकता है।

फिलहाल तस्वीर साफ है महागठबंधन के दल अपने-अपने एजेंडे में उलझे हैं, साझा सोच नदारद है और मतदाता भ्रमित। अगर यह हालात यूं ही रहे तो बिहार चुनाव में विपक्ष का दावा कमजोर पड़ सकता है।

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Punjab Crime News: ‘मेरे पिता ने मेरी पत्नी छीन ली’…पूर्व DGP मुहम्मद मुस्तफा क...

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Punjab Crime News: पंजाब के पूर्व डीजीपी मोहम्मद मुस्तफा के बेटे अकील अख्तर की मौत का मामला अब एक रहस्यमयी मोड़ पर आ चुका है। पहले इसे दवाइयों की ओवरडोज़ से हुई सामान्य मौत माना जा रहा था, लेकिन अब अकील का एक पुराना वीडियो सामने आने के बाद केस पूरी तरह उलझ गया है। वायरल हो रहे इस वीडियो में अकील ने अपने ही पिता, पत्नी और परिवार के कुछ अन्य सदस्यों पर चौंकाने वाले आरोप लगाए हैं।

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वायरल वीडियो में अकील के खुलासे- Punjab Crime News

करीब दो महीने पुराना ये वीडियो अब सोशल मीडिया पर खूब शेयर किया जा रहा है। इसमें अकील ने साफ शब्दों में कहा है कि उन्हें उनके पिता मोहम्मद मुस्तफा और उनकी पत्नी के बीच अफेयर के बारे में पता चल गया था। अकील ने बताया, “2018 में मैंने दोनों को अपने ड्रेसिंग रूम के पास स्थित बाथरूम में बिना कपड़ों के देखा था। ये मेरे लिए सदमे से कम नहीं था।”

उन्होंने दावा किया कि इस घटना के बाद उन्हें मानसिक और कानूनी तौर पर परेशान किया जाने लगा। “मेरे ऊपर झूठे केस दर्ज कराने की कोशिश की गई, पर एक एसएचओ ने खुद कहा कि सबूत के बिना केस नहीं बन सकता,” अकील ने कहा।

परिवार पर आरोप: ‘मेरी जान लेने की प्लानिंग की गई’

अकील ने अपनी मां और बहन पर भी आरोप लगाए कि वे अपने पिता के साथ मिलकर उन्हें रास्ते से हटाने की योजना बना रहे थे। “मैंने खुद उन्हें ये बातें करते सुना है कि मुझे कैसे हटाना है,” उन्होंने कहा।

वीडियो में उन्होंने बहन पर कॉल गर्ल्स के साथ रहने और संदिग्ध खर्चों का भी जिक्र किया। अकील ने यह तक कहा कि एक बार उनकी बहन घर से भाग गई थी ताकि अपने बॉयफ्रेंड से शादी कर सके, लेकिन उनके माता-पिता इसके खिलाफ थे।

पत्नी के साथ रिश्तों का कड़वा सच

अपने शादीशुदा जीवन पर बोलते हुए अकील ने कई चौंकाने वाली बातें कहीं। उन्होंने कहा कि उनकी पत्नी ने सुहागरात को उन्हें छूने तक नहीं दिया। अगले दिन जब उन्होंने पूछा कि क्या उसने नहाया, तो उसने तंज कसते हुए कहा – “क्यों, तुम्हारे साथ नहाना था क्या?” यह सुनकर अकील पूरी तरह टूट गए थे।

उन्होंने कहा, “उसके बाद वह जबरन मेरे साथ सोती थी, लेकिन मेरे दिल में सवाल यही था कि उसकी शादी मुझसे हुई है या मेरे पिता से?”

FIR दर्ज, परिवार ने साधी चुप्पी

टीवी9 की रिपोर्ट के अनुसार, अब इस मामले में मोहम्मद मुस्तफा, उनकी पत्नी रजिया सुल्ताना, बेटी और बहू के खिलाफ FIR दर्ज की जा चुकी है। बताया जा रहा है कि मुस्तफा फिलहाल अपनी पत्नी के साथ सहारनपुर में हैं और उन्होंने कानूनी सलाहकारों से बातचीत शुरू कर दी है।

वहीं, पूरे परिवार ने अब तक मीडिया के सामने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।

क्या मिलेगा अकील को इंसाफ?

अकील ने अपने वीडियो के अंत में कहा था, “मेरी कोई नहीं सुन रहा। मुझे इंसाफ चाहिए।” अब यह देखना बाकी है कि पुलिस इस केस में कौन सा रुख अपनाती है और क्या वाकई अकील की मौत एक साजिश का हिस्सा थी या फिर कोई निजी संघर्ष का दुखद अंत।

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Sikhism in East Midlands: ईस्ट मिडलैंड्स में सिखों का दबदबा, जो बदल रहा है पूरे इलाके...

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Sikhism in East Midlands: जब बात ब्रिटेन में सिख समुदाय की होती है, तो ज़हन में सबसे पहले वेस्ट मिडलैंड्स या ग्रेटर लंदन का नाम आता है। लेकिन एक और इलाका है जो धीरे-धीरे इस सांस्कृतिक पहचान का एक अहम केंद्र बनता जा रहा है और वो है ईस्ट मिडलैंड्स।

2021 की जनगणना के अनुसार, ईस्ट मिडलैंड्स में 53,950 सिख लोग रहते हैं, जो इस क्षेत्र की कुल आबादी का लगभग 1.1% हिस्सा हैं। यह आंकड़ा इस क्षेत्र को यूके का चौथा सबसे बड़ा सिख-बहुल इलाका बनाता है।

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कहां-कहां बसे हैं सिख? Sikhism in East Midlands

अगर गहराई से देखें, तो ईस्ट मिडलैंड्स के कई शहरों और काउंसिल क्षेत्रों में सिख समुदाय की अच्छी खासी उपस्थिति है:

  • लीसेस्टर में सबसे अधिक – 16,451 सिख
  • डर्बी में – 9,762
  • ओडबी और विगस्टन – 4,342
  • नॉटिंघम – 4,110
  • ब्लेबी – 2,927

और अगर प्रतिशत के हिसाब से बात करें, तो:

  • ओडबी और विगस्टन की जनसंख्या का 7.5% भाग सिखाये जाते हैं
  • लीसेस्टर में यह संख्या 4.5%
  • डर्बी – 3.7%
  • ब्लेबी – 2.8%
  • दक्षिण डर्बीशायर – 2.1%

इन आंकड़ों से यह साफ़ झलकता है कि सिख समुदाय ने न केवल यहाँ बसावट की है, बल्कि अपनी संस्कृति, आस्था और सामाजिक संरचना के साथ इस क्षेत्र का हिस्सा भी बन गया है।

ईस्ट मिडलैंड्स में यूके सिख गेम्स

हाल ही में ईस्ट मिडलैंड्स में सिख समुदाय की एक और ऐतिहासिक पहल देखने को मिली – जहां 16 से 18 अगस्त, 2024 के बीच पहले यूके सिख गेम्स का आयोजन किया गया। यह आयोजन पूरे क्षेत्र के कई स्थानों पर हुआ और इसमें 6 अलग-अलग खेल स्पर्धाएं शामिल थीं। इस इवेंट का उद्देश्य सिख समुदाय के भीतर खेलों के प्रति रुचि और भागीदारी को बढ़ावा देना था।

 

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यह पहल न सिर्फ सफल रही, बल्कि पूरे यूके से खिलाड़ी, परिवार और दर्शक बड़ी संख्या में इसमें शामिल हुए। खेलों में क्रिकेट, फुटबॉल, वेटलिफ्टिंग, ट्रैक रेस के साथ-साथ कुछ नॉन-स्पोर्टिंग प्रतियोगिताएं भी रखी गईं, जिनका मकसद सिर्फ प्रतिस्पर्धा नहीं बल्कि समुदाय को जोड़ने और उत्सव का माहौल बनाना था।

एक लंबा और भावुक इतिहास

सिखों का ब्रिटेन से रिश्ता कोई आज का नहीं है। इसकी जड़ें इतिहास में गहराई तक फैली हैं।
दलीप सिंह, जो सिख साम्राज्य के आखिरी महाराजा थे, 1854 में इंग्लैंड आए थे। वे पंजाब में अपने साम्राज्य से जबरन निकाले गए थे और ब्रिटिश शासन के अधीन यहां लाए गए। उनके साथ उनकी मां महारानी जिंद कौर भी बाद में इंग्लैंड आकर बसीं। इसी के साथ सिख उपस्थिति की कहानी ब्रिटिश ज़मीन पर शुरू हुई।

इसके बाद 1911 में लंदन में पहला सिख गुरुद्वारा खुला। यह वह समय था जब पहले सिख आप्रवासी पंजाब से ब्रिटेन आकर यहाँ बसना शुरू कर चुके थे। फिर दोनों विश्व युद्धों के दौरान सिख सैनिकों की भागीदारी, और युद्ध के बाद के दशकों में बड़ी संख्या में सिख समुदाय का यहां आकर बसना – इस रिश्ते को और गहरा करता गया।

ईस्ट मिडलैंड्स में धार्मिक पहचान के केंद्र – गुरुद्वारे

ईस्ट मिडलैंड्स में सिख संस्कृति और धर्म का केंद्र यहां गुरुद्वारे बने हैं, जो न केवल धार्मिक स्थल हैं, बल्कि सामाजिक एकता, शिक्षा और सेवा का प्रतीक भी हैं।

लीसेस्टर में मौजूद गुरु नानक गुरुद्वारा और गुरु तेग बहादुर गुरुद्वारा, नॉटिंघम में स्थित गुरु नानक देव जी गुरुद्वारा और सिरी गुरु सिंह सभा सिख मंदिर – ये सभी धार्मिक स्थल सिखों की मजबूत ताकत और उनके सक्रिय प्रमाण हैं।

यहाँ रोज़ाना आने वाले सैकड़ों श्रद्धालु, लंगर सेवा, धार्मिक शिक्षा और बच्चों के लिए सांस्कृतिक कक्षाएं सब कुछ यही दिखाता है कि कैसे ये स्थान लोगों को जोड़ने का काम कर रहे हैं।

सिर्फ धर्म नहीं, समाज का हिस्सा भी

सिख समुदाय ने इस क्षेत्र में न सिर्फ अपनी धार्मिक पहचान बनाए रखी है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक योगदान भी दिया है। कई सिख परिवार अब दूसरे या तीसरे पीढ़ी के ब्रिटिश नागरिक हैं, जो डॉक्टर, इंजीनियर, व्यापारी, शिक्षक और यहां तक कि स्थानीय राजनीति का भी हिस्सा बन चुके हैं।

इसके साथ ही, सिख समुदाय सेवा, समानता और भाईचारे के मूल सिद्धांतों को लेकर भी सक्रिय है। महामारी के दौरान ईस्ट मिडलैंड्स में कई गुरुद्वारों ने भोजन और दवाइयों की मुफ्त सेवा शुरू की थी, जिसने समुदाय के भीतर और बाहर दोनों जगह गहरी छाप छोड़ी।

चुनौतियाँ और उम्मीदें

हालांकि सब कुछ सकारात्मक है, लेकिन चुनौतियाँ भी हैं। धार्मिक स्वतंत्रता, पहचान की स्वीकार्यता और युवा पीढ़ी में संस्कृति से जुड़ाव बनाए रखना ऐसे मुद्दे हैं जिन पर ध्यान देने की ज़रूरत है।

कुछ रिपोर्ट्स बताती हैं कि ऑफिस और स्कूलों में धार्मिक पहचान को लेकर खुलापन अभी भी हर जगह समान नहीं है। हालांकि, सिख समुदाय अपने संगठनों के ज़रिए इस ओर लगातार काम कर रहा है – जैसे सिख स्टूडेंट यूनियंस, सामुदायिक सभा और गुरुद्वारों की शिक्षा पहलें।

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नीतीश कुमार का विकल्प माने गए Samrat Chaudhary, अब बीजेपी की कमजोर कड़ी?

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Samrat Chaudhary: बिहार विधानसभा चुनाव नजदीक हैं, और इस चुनावी संग्राम में जहां सभी दल अपनी-अपनी सियासी जोड़तोड़ में लगे हुए हैं, वहीं बीजेपी के डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी की सियासी ज़िंदगी भी कड़ी परीक्षा से गुजर रही है। एक वक्त था जब सम्राट चौधरी को बिहार बीजेपी का ‘नीतीश कुमार’ कहा जा रहा था, लेकिन हालात अब कुछ और ही कहानी बयान कर रहे हैं। लोकसभा चुनाव 2024 के परिणामों ने उनकी सियासी जमीन को कमजोर कर दिया था, और अब प्रशांत किशोर जैसे नेताओं की बयानों ने उनकी इमेज को और चोट पहुंचाई है। आइए जानते हैं कैसे सम्राट चौधरी की राजनीतिक यात्रा की राह में इतने विवादों और समस्याओं का सामना करना पड़ा और उनकी छवि किस तरह डेंट हो गई है।

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लोकसभा चुनाव में पार्टी को नहीं मिला फायदा- Samrat Chaudhary

सम्राट चौधरी का सियासी पतन उस समय शुरू हुआ जब 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को वह परिणाम नहीं मिल सके, जिनकी उम्मीद थी। बीजेपी को 2014 और 2019 में क्रमशः 22 और 17 सीटें मिली थीं, लेकिन 2024 में वह घटकर सिर्फ 12 सीटों पर सिमट गई। सम्राट चौधरी, जो उस वक्त बिहार बीजेपी के अध्यक्ष थे, पर इसका ठीकरा फोड़ा गया। पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे ने खुलकर यह कहा था कि ‘आयातित’ नेताओं से पार्टी का भला नहीं हो सकता।

बीजेपी को उम्मीद थी कि सम्राट चौधरी को कुशवाहा वोटों का समर्थन मिलेगा, क्योंकि वे कोइरी समुदाय से आते हैं, लेकिन नतीजे इसके उलट रहे। कुशवाहा वोट बीजेपी के बजाय विपक्षी महागठबंधन के उम्मीदवारों के पास गए, जिससे पार्टी को बड़ा नुकसान हुआ। यही नहीं, सम्राट चौधरी ने खुद भी एक बार यह घोषणा की थी कि आगामी विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जाएगा, जो बीजेपी समर्थकों के लिए एक बड़ा झटका था।

कोइरी वोटरों पर प्रभाव की कमी

सम्राट चौधरी की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि वे अपनी जाति, यानी कोइरी समुदाय के वोटरों पर प्रभाव बनाने में सफल नहीं हो पाए। लोकसभा चुनाव में कुशवाहा वोटरों ने आरजेडी को अपना समर्थन दिया, जो चौधरी की रणनीति पर पानी फेर गया। इस चुनावी परिणाम से यह साफ हो गया कि सम्राट चौधरी को अपनी बिरादरी पर उतना प्रभाव नहीं है, जितना बीजेपी को उम्मीद थी।

बीजेपी के पारंपरिक कोर वोटर्स से खींचतान

सम्राट चौधरी भले ही बिहार बीजेपी के प्रभावशाली ओबीसी नेता माने जाते हों, लेकिन वे पार्टी के पारंपरिक, मध्यवर्गीय कोर वोटर्स के खांचे में फिट नहीं बैठते हैं। यह वर्ग संगठन, स्थिरता, और साफ-सुथरी राजनीति को प्राथमिकता देता है। सम्राट चौधरी की राजनीतिक यात्रा, जो आरजेडी से जेडीयू और अब बीजेपी तक पहुंची है, बीजेपी के स्थिर और विचारनिष्ठ नेताओं की परंपरा से मेल नहीं खाती। उनकी शैक्षणिक योग्यता पर उठे सवाल और बयानबाजी भी पार्टी के पारंपरिक वोटर्स को असहज करती है।

प्रशांत किशोर की स्ट्रेटेजी से इमेज को नुकसान

जनसुराज पार्टी के नेता प्रशांत किशोर ने सम्राट चौधरी को अपनी राजनीति का टारगेट बनाया और उन पर कई गंभीर आरोप लगाए। किशोर ने कहा कि सम्राट चौधरी बीजेपी में केवल इसलिए हैं क्योंकि वे कुशवाहा समुदाय के वोटों को साधने के लिए नीतीश कुमार का तर्ज़ अपनाना चाहते हैं। साथ ही, सम्राट चौधरी की राजनीति को अवसरवादी और जाति-आधारित बताया गया, जिससे उनकी छवि और भी खराब हो गई।

विवादों से घिरी सम्राट चौधरी की छवि

सम्राट चौधरी के नाम के साथ विवादों का पिटारा हमेशा जुड़ा रहा है। शैक्षणिक योग्यता से लेकर व्यक्तिगत बयानबाज़ी तक, उनका नाम हमेशा सुर्खियों में रहता है। हाल ही में, उनकी उम्र और शिक्षा के बारे में भी सवाल उठाए गए। इससे उनकी छवि और भी संदिग्ध हुई। भाजपा ने उन्हें ओबीसी चेहरा बना कर अपनी राजनीति की दिशा तय करने की कोशिश की थी, लेकिन लगातार उठते विवादों ने उन्हें एक विवादित नेता के रूप में स्थापित कर दिया।

आने वाले चुनाव में सम्राट चौधरी का लिटमस टेस्ट

सम्राट चौधरी के लिए आगामी बिहार विधानसभा चुनाव एक बड़े लिटमस टेस्ट की तरह हैं। अगर इस बार भी कुशवाहा वोटरों का बीजेपी में ट्रांसफर नहीं हो पाता, तो सम्राट चौधरी बीजेपी के लिए बोझ बन सकते हैं। उनका राजनीतिक भविष्य अब इस पर निर्भर करेगा कि वे अपनी छवि को कैसे संभालते हैं और क्या वे बीजेपी के लिए कुशवाहा वोटरों को खींचने में सफल हो पाते हैं या नहीं।

इसलिए ये कहना गलत नहीं होगा कि बिहार विधानसभा चुनाव सम्राट चौधरी के लिए एक चुनौतीपूर्ण स्थिति पैदा कर रहे हैं। बीजेपी के लिए उनका राजनीतिक भविष्य अब अधिक असुरक्षित लग रहा है, और यदि उन्हें कुशवाहा वोटरों का समर्थन नहीं मिलता, तो उनका रोल पार्टी के लिए कठिन हो सकता है। सम्राट चौधरी के सामने अब यह सवाल है कि वे अपनी छवि को सुधार पाते हैं या नहीं, और बिहार की राजनीति में अपनी स्थिति को फिर से मजबूत कर पाते हैं या नहीं।

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